Saturday, December 22, 2007

..आप क्या सोचते हैं कि कलाकार क्या है? क्या वह कोई मंदबुद्धि व्यक्ति है

कला और उसके रचना संबन्धों के बारे में पाब्लो पिकासो के विचारों का एक कोलाज


कला को क्यों समझें
.....हर कोई कला को समझना चाहता है। कभी हम चिड़िया के गाने को समझने की कोशिश करते हैं। हम रात से, फूलों से और चारों ओर की हर चीज़ से क्यों प्रेम करते हैं? लेकिन जब पेंटिंग की बात आती है तो लोग उसे समझना जरूरी मानते हैं। काश वे पहचान पाते की आखिर कलाकार अपनी अनिवार्यतावश ही काम करता है, कि वह खुद इस संसार का एक मामूली-सा हिस्सा है, और यह कि उसे संसार की उन दूसरी चीज़ों के मुकाबले कोई ज्यादा महत्व नहीं दिया जाना चाहिए, जो हमें अच्छी लगती हैं, हालाकि हम उनकी व्याख्या नहीं कर पाते।
.....लोग अब भी आधुनिक कला को नहीं समझते, लेकिन इसमें न कालाकार का दोष है न लोगों का। इसका कारण यह हैं कि उन्हें कला के बारे में कुछ नहीं सिखाया गया है, लेकिन यह किसी को नहीं सूझा कि लोगों को पेंटिग को देखना भी सिखाया जाये। मसलन यह कि शायद यह रंगो की शक्ल में कविता है, या किसी फार्म या लय का जीवन हो सकता हैं। कुल मिलाकर वे रुपंकर कला की मूल्यवत्ता से पूरी तरह अनजान हैं। (1946)

कला और प्रकृति
.....प्रकृति और कला दो भिन्न चीजें होने के कारण कभी एक चीज नहीं हो सकती। कला के माध्यम से हम अपनी यह अवधारणा व्यक्त करते हैं कि प्रकृति में क्या नहीं है। (1923)
.....प्रकृति एक चीज़ है और पेंटिग एक बिल्कुल दूसरी चीज़। पेंटिग, प्रकृति के बराबर हैं। हमें प्रकृति का बिंब देने के लिए कलाकारों का आभारी होना चाहिए। हम प्रकृति को उनकी आंखों से देखते हैं।

रेखांकन
.....अगर रेखाओं और आकारों का तुक मिल जाये और वे सजीव हो उठें तो यह कविता जैसा होगा। इसे हासिल करने के लिए बहुत ज्यादा शब्दों का इस्तेमाल ज़रूरी नहीं है। कभी-कभी बहुत लंबी कविता की बनिस्पत दो या तीन पंक्तियों में ही कहीं ज्यादा कविता संभव हो जाती है। (1946)
.....जो मैं कर रहा हूँ वह जब मेरे बगैर अपनी स्वतन्त्र बात करने लगे तो समझिए मैं जीत गया। और मेरे ख्याल से मैंने फिलहाल जो पाया है वह इतनाभर है कि मैं रेखांकन की कला में एक कारीगर की अवस्था से आगे चला आया हूं। जब ऎसा होता है कि मैं बोलना बंद करता हूँ और मेरे बनाये रेखांकन ही बोलने लगते हैं और वे मुझसे दूर चले जाते हैं और मेरा उपहास करने लगते हैं तो मुझे लगता है कि मैंने अपना लक्ष्य पा लिया है। (1956)
.....विचार सिर्फ प्रस्थान बिंदुओं की तरह हैं। वे जब दिमाग में आते हैं तो मैं कभी-कभार ही उन्हें पकड़ पाता हूँ। मैं जैसे ही काम करने बैठता हूँ, कलम से दूसरे विचार निकलने लगते हैं। जब एक खाली कागज मेरे सामने होता है तो वह हमेशा दिमाग में घूमता रहता है। इस मामले में मेरी इच्छा जो भी हो, अपने विचारों से ज्यादा दिलचस्प मुझे वह लगता है जो मैं व्यक्त कर रहा हूँ। (1966)

रंग
....फिलहाल रंगों में मेरी दिलचस्पी कम ही है, गुरुत्व में ज्यादा है, और सघनता की तो बात ही क्या है। (1956) आकृतियों की ही तरह रंग भी संवेगों के अनुरूप बदलते रहते हैं।

संग्रहालय
.....संग्रहालयों में ऎसी ही कलाकृतियां होती हैं जो नाकाम रही हों। .....क्या आप हँस रहे हैं? ज़रा सोच कर देखिये और आप समझ जायेंगे कि मैं सही कह रहा हूँ या गलत। आज हम जिन्हें 'मास्टरपीस' कहते हैं, वे सभी कृतियाँ उस दौर के मास्टर्स के बनाए हुए नियमों को तोड़कर बनाई गई थीं। बेहतरीन काम वही है जो साफ-साफ उस कलाकार के किसी ’दोष’ की जानकारी देता हो। (1948)
......अगर आप किसी कलाकृति को नष्ट करना चाहें तो आप कुछ नहीं बस इतना कीजिए कि उसे एक कील पर खूबसूरती से टांग दीजिए और तुरन्त ही आपको उसके फ्रेम के अलावा कुछ नहीं दिखाई देगा। कला को तभी बेहतर देखा जा सकता है जब वह अपनी जगह पर न हो। (1958)

राजनीति
.....आप क्या सोचते हैं कि कलाकार क्या है? क्या वह कोई मंदबुद्धि व्यक्ति है जो अगर पेंटर है तो उसके पास सिर्फ आंखें होंगी, अगर संगीतकार है तो उसके सिर्फ कान होंगे या अगर कवि है तो उसके दिल के हर कोने में एक वीणा बज रही होगी, और यहाँ तक कि अगर वह बाक्सर है तो उसके पास सिर्फ कुछ मांसपेशियां होंगी? नहीं, इसके ठीक उल्टा है। वह पेंटर होने के साथ ही एक राजनैतिक प्राणी है जो दुनिया की भयावह, प्रेमपूर्ण या खुशनुमा घटनाओं के प्रति सतर्क है और लगातार उनके रूपरंग में अपने को ढालता रहता है। यह कैसे मुमकिन है कि आप दूसरों से सरोकार न रखें? किस ठंढी उदासीनता से यह संभव है कि आप अपने को उस जीवन से काट कर रखें जो इतने विपुल स्तर पर आप तक पहुँच रहा है? नहीं, पेंटिंग घरों को सजाने के लिए नहीं है। यह शत्रु के खिलाफ एक आक्रामक और एक रक्षात्मक हथियार है।(1945)
.....हम कलाकार अविनाशी हैं, जेल में भी और यातना शिविरों में भी। मैं अपने कला संसार का खुदा रहूँगा ही, भले ही मुझे काल कोठरी में अपनी गीली जीभ से धूल भरे फर्श पर पेंटिंग करनी पड़े।(1949)

(डोरे एश्टन द्वारा संपादित पिकासो के विभिन्न इंटरव्यू, लेखों और वार्ताओं के चयन की अंग्रेजी पुस्तक "पिकासो आन आर्ट" का मंगलेश डबराल द्वारा अनूदित संकलन से साभार चयनित अंश)

Tuesday, December 18, 2007

महा कवि का महाप्रयाण -२

अजय कुमार

सुनने पढ़ने में सतर्क थे। एक बार विषय ठीक से पता न होने के कारण मैंने उर्दू कविता में सामाजिक बदलाव के बदले उर्दू कविता का इतिहास ही लिखमारा। एक साथी ने कमेंट किया "अजय जी बदलाव की चर्चा करने के बजाय इतिहास ही लिख लाये"। अध्यक्षीय वक्तव्य में त्रिलोचन जी ने कहा, " आधार पत्र में तमाम कवियों के संदर्भ सामाजिक बदलाव के ही संदर्भ हैं। लगता है आपने ध्यान से नहीं सुना है।" जाहिर है त्रिलोचन जी ने ध्यान से सुना था। एक गोष्ठी में मिलते ही कहा, "वामिक साहब की आत्मकथा 'समय' के हर अंक में नहीं छाप रहे हो।" मैंने कहा, "नहीं हर अंक में छ्प रही है।" जौनपुर लौटकर कन्हैया, जिस पर अखबार छ्पवाने की जिम्मेदारी थी, जिक्र किया तो उसने कहा, "ठीक कह रहे थे, एक अंक में नहीं जा पाई थी।" यानी 'समय' ध्यान से पढ़ते थे और आत्मकथा का लगता है इन्तज़ार करते थे।

लखनऊ के दलित साहित्य सेमिनार के मौके पर मुझे त्रिलोचन जी के साथ उस कमरे में ठहरने का सौभाग्य मिला जिसे दिन में कामरेड विनोद मिश्र ने खाली किया था (अपनी लुंगी भी वे खिड़की पर टंगी हुई भूल गये थे)। तब तक सर्दी बाकायदा शुरु नहीं हुई थी लेकिन गेस्ट हाउस लान के बीच और नहर के किनारे होने के कारण कमरा ख़ासा ठंडा था। सोने के लिये त्रिलोचन जी ने अपनी ऊनी चादर निकाली और मेरे पास कुछ न देखकर सलाह दी कि दरवाजों के पर्दे उतार लीजिये। मैंने कान नहीं दिया और एक रिश्तेदार के लिये भिजवाई आशा की साड़ियाँ ओढ़कर सो गया। रात ऎसी गुज़री कि अब भी याद है। और उनकी नेक सलाह भी "पर्दे उतार लीजिये"।

सेमिनार के बाद अतिथिगृह जाते हुए टेम्पो में मेरी किसी बात पर बोले, " आपसे कौन जीत सकता है? आप तो अजय हैं।" मैंने कहा अजय माने तो हुआ जिसकी जय न हो। बोले, "नहीं जिसको जीता न जा सके।" और मानस की एक अर्ध्दाली सुना दी "जीत सकै को अजय रघुराई"। फिर बताया, "जाट कोई एक जात नही है। सभी जाति के लड़ाकुओं को मिलाकर बनी जात है।" प्रमाण पेश किया - "अवधी में जाट का अर्थ होता है लड़ाकू। कहते हैं फलनवा बड़ा जट्ट आदमी है"। यानी वे सिर्फ मुझे, भाई और पिता को ही नहीं जानते थे; खानदान की खबर भी रखते थे।

वहीं अतिथिगृह के भोजनकक्ष में डोंगों और प्लेटों के आदान-प्रदान के बीच किसी ने हरी मिर्च की प्लेट मेरी तरफ बढ़ाई-"क्या आप इसे लेना पसन्द करेंगे?" मेरे मुँह से निकला- "मैं उसे देखना भी पसन्द नहीं करता।" बातचीत के दौरान खाने-पीने की चीजों में औषधि गुणों की बात आ गई। त्रिलोचन जी आदत के अनुसार कोर्सेस में लंच ले रहे थे यानी दाल रोटी सब्जी बारी-बारी से निपटा रहे थे। बिना दाहिने बायें देखे बोले, "जिसे अजय जी देखना भी पसंद नहीं करते उसमें भी अनेक औषधि गुण हैं। इलाहाबाद में राष्ट्रीय परिषद की बैठक के दौरान जब हमलोग नर्मदेश्वर जी के यहाँ से खाना खाकर आ रहे थे त्रिलोचन जी एक पेड़ के पास ठिठ्क गए। बोले, "यह बकाइन है, भैषजशास्त्र में इसे महानीम कहते हैं। इसमें बड़े औषधि गुण होते हैं।" उनके इस गुण के बारे में अवधेश जी से सुन चुका था। कितने ही अनाम पेड़ पौधों के नाम उन्हें उनसे पता चले थे। कितने ही फूलों के संस्कृत नाम भी। वे माटी से जुड़े निहायत ज़मीनी आदमी थे। तभी माटी की गंध से सुवाषित ऎसी अमर रचनाओं का भण्डार छोड़ गये हैं वे अपने पीछे। और भी उस दौर में जब हिन्दी कविता आयातित विचारों से इस कदर आक्रांत थी। अच्छे-अच्छे विदेशी मुहावरों का अनुवाद कर रहे थे नये के नाम पर।

अपने पिता की जन्मशताब्दी की अध्यक्षता करने के लिए मैंने उन्हें आमंत्रित किया। जवाब आया- " आप बुलायें और मैं न आऊँ यह कैसे हो सकता है।" इस अवसर पर पिता के तीन कर्मक्षेत्रों - स्वतंत्रता संग्राम, पत्रकारिता और साहित्य पर सेमिनार हुए और इन तीन क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान के लिए तीन लोगों को "समय सम्मान" से सम्मानित किया जाना था। साहित्य के लिये त्रिलोचन जी को चुना गया था। सम्मान समारोह शुरु होने के पहले वे बोले, " आप का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ अब मुझे छुट्टी दीजिये तो ए.जे. पकड़ कर निकल जाऊँ और एक दिन इलाहाबाद भी रुक लूँ।" तब तक सम्मान पत्र फ्रेम होकर नहीं आ पाये थे। मैंने माला और शाल से सम्मान की औपचारिकता पूरी करके उन्हें विदा किया। थोड़ी ही देर में सम्मान पत्र भी फ्रेम होकर आ गया तो भागकर स्टेशन पहुँचा। प्लेटफार्म नम्बर दो पर इलाहाबाद जौनपुर पैसेन्जर का इन्तज़ार करते हुए त्रिलोचन जी एक बेंच पर आसीन थे। मैंने सम्मान पत्र दिया तो रैपर का काग़ज़ हटाकर सम्मान पत्र को देखा और अटैची में रख कर बोले, " इसमें भी एक लतीफा है। जब कोई लिखना बन्द कर देता था तो हम लोग उसे महाकवि की उपाधि दे देते थे।" मैंने सम्मान पत्र में उनके नाम के पहले महाकवि लिखवा दिया था, जो वो थे भी।

एक लतीफा इसमें और रह गया। आशा जिसके सर पर उनके खाने-ठहरने का इन्तजाम था, उनके सहायक से पता करके सब कुछ ठीक ठाक निपटा दिया था। यहाँ तक कि थरमस में गरम पानी भी बिस्तर के सिरहाने रख दिया था। सुबह नाश्ते के लिए दलिया वगै़रह लेकर आयी तो पूछा, " आपको यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं हुई?" वे लोगो से घिरे बतिया रहे थे, मुड़कर बोले, " जिसकी आप जैसी माँ हो उसे भला क्या तकलीफ हो सकती हैं।" आशा खिसिया गई, हो सकता हैं कोई हँस दिया हो। वहाँ क्या कहती मुझको पूरा वाक़या सुनाकर बोली, "तुम्हारे त्रिलोचन जी सठिया गये हैं क्या? भला मैं उनकी माँ जैसी लगती हूँ?" मैंने ठहाका लगाया तो और बौखला गई। मैंने दिलासा दिया, "माँ से उनका मतलब था माँ जैसी देखभाल करने वाला।" तब लगा जैसे उसे अपने किये का प्रतिदान मिल गया है।

Monday, December 17, 2007

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

कवि त्रिलोचन शास्त्री की कविता-"चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती" के कुछ अंश

Saturday, December 15, 2007

महा कवि का महाप्रयाण -१

अजय कुमार


(हिन्दी की प्रगतिशील कविता की अंतिम कड़ी त्रिलोचन शास्त्री का 9 दिसंबर शाम उनके निवास पर निधन हो गया। वह 91 वर्ष के थे। हिन्दी कविता के इतिहास में शमशेर, नागार्जुन, केदार और त्रिलोचन जी का अलग महत्व रहा है। इन्होंने हिन्दी में प्रगतिशील धारा को स्थापित किया। श्री शास्त्री जी का निधन हिन्दी की प्रगतिशील और जनपदीय चेतना की कविता के लिए बड़ी क्षति है। उनके निधन से एक युग का अंत हो गया। वह जनसंस्कृति मंच के पुर्व अध्यक्ष भी थे। बनारस के तमाम कलाकारों, साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों और जनसंस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख व्यक्त किया है। साहित्यकार अजय कुमार जी, जो सेवा प्रेस जौनपुर के रहने वाले तथा जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है, त्रिलोचन जी के साथ बिताए कुछ छ्ड़ो को हमारे साथ याद कर रहे हैं)


आठवीं पार्टी कान्फरेन्स के लिए धनबाद ट्रेन पकड़ने के लिए हजारीबाग रोड से चली पैसेंजर ट्रेन के ठसाठस भरे डब्बे में कुछ देर खड़े खड़े द्रविण प्राणायाम करने के बाद जैसे ही कमर सीधी करने के लिए एक सीट का सहारा मिला और मैंने बैग से महाश्वेता देवी का "अमृत संचय" निकालकर बनारस में कर्नल नील के अत्याचारों के ब्योरे पर नज़र दौड़ानी शुरु की कि उदय ने भीड़ से सरक कर कन्धा थपथपाया और खबर दी - "त्रिलोचन जी गये"। उनकी पिछली बीमारी की खबर भी दिल्ली जाते हुए ट्रेन में मिली थी वाचस्पति जी से। स्मृतिलोप का पता "समयान्तर" में अजय सिंह के लेख को ट्रेन में ही पढ़ते हुए चला और अब उनके आखिरी सफर की खबर भी मिली सफर करते हुए।
तो इस तरह खतम हुआ संघर्षशील और सार्थक जीवन का एक लम्बा सफर। खबर के साथ शुरु हुआ मेरी यादों का सफर। बुकमार्क लगाकर किताब बैग में रख दी और मुड़ गया महाश्वेता देवी और नील के 1857 के बनारस से त्रिलोचन के बनारस की ओर। भाई (दम्मू जी) ने पहली बार उनसे मिलाया था "जनवार्ता" के कार्यालय में। वे कुर्ता खूंटी पर टांगकर खद्दर की बंडी और पायजामा पहने हुए मेज - कुर्सी पर डटे कुछ लिख रहे थे। तपाक से मिले। पिता के और समय (अखबार) के बारे में बात करते रहे। बातें क्या हुई कुछ याद नहीं। तब मै त्रिलोचन होने का मतलब ही नहीं जानता था। दूसरी मुलाकात भी डा. अवधेश प्रधान ने बनारस में ही कराई रथयात्रा चौमुहानी पर स्थित उनके घर पर। मेरा परिचय मिलते ही बड़ी आत्मीयता से पिता, भाई और अखबार के बारे में पूछा, "समय समय की बात समय पर मुझ तक नहीं पहुँच रही है आजकल" (भारत नीति गगन में निर्मल जीवन ज्योति जगावेगा / समय समय की बात समय पर "समय" आप बतलावेगा "समय साप्ताहिक" का आदर्श वाक्य हुआ करता था)। प्रधान जी और उनके बीच समाज, संस्कृति, इतिहास, भूगोल और भाषा पर लम्बी बातचीत होती रही। मैं दो महासमुद्रों के संगम पर बैठा सीपियां और कंकड़ चुनता रहा। मोती तो हमेशा ही निपुण गोताखोर को ही मिलते रहे हैं।

बनारस में ही एक मुलाकात और रही। लगता है अब "समय" उन्हे बराबर मिल रहा था। मिलते ही शिकायत की - " अपने भाई से कहना जैसे रामेश्वर बाबू जौनपुर और आसपास के गांव-जवार के कवियों की कविताएं छापते थे वैसे ही छापते रहें। क्रान्तिकारियों की कविताओं के अनुवाद दूसरों के लिए रहने दें।" इसी बनारस यात्रा में ठाकुर प्रसाद जी से मिला। त्रिलोचन जी की चर्चा पर बोले "जिस दिन चीनी क्रान्ति के विजय की खबर आई त्रिलोचन जी के इम्तहान चल रहे थे। हमलोग बड़ी सतर्कता के साथ उन्हे घेरे रहे कि कहीं वे पढ़ाई छोड़कर कविता लिखने में न जुट जायें। दूसरे दिन इम्तहान जाने के पहले वे लंगोट लेकर ऊपर गए कसरत करने। आधे धन्टे बाद लौटे तो कविता तैयार थी - "ताल ठोक कर खड़ा हुआ है लालचीन देखो"। और भी तमाम बहुत कुछ बनारसी मस्ती के दिनों के त्रिलोचन पर।

फिर जब वे जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष हुए तो मुलाकात के अवसत बढ़े। बैठकों, गोष्ठियों और सम्मेलनों में बार-बार मिलना हुआ। गोष्ठियों में उनकी विद्वता और बातचीत में उनके विश्वकोक्शीय ज्ञान से बराबर साक्षात्कार हुआ। खुद कुछ शुरू करें या किसी का जवाब दे रहे हों, कहाँ कहाँ से होते हुए कहाँ के कहाँ पहुँच जाते थे। कभी लगता अब बहक गये पर एक लम्बी विश्व्यात्रा पूरी करके फिर उस तमाम विषय को अपने मूल विषय से जोड़कर चमत्कृत कर देते। बाल की खाल नहीं उधेड़ते थे, बात को ही परत दर परत खोलते चले जाते थे। कभी बूंद को फैलाकर समुद्र कर देते और कभी समुन्दर को समेट कर बंधी मुट्ठी के अंगूठे पर बनने वाले गड्ढे में समो देते थे। एक बैठक में किसी मुद्दे पर बहस कुछ ज्यादा ही लम्बी खिंच गई। महासचिव ने अध्यक्षीय भाषण के लिए त्रिलोचन जी को बुलाया तो मेरे बगल में बैठे एक साथी ने मेरे कान में कहा, "लंच टला डिनर तक" लेकिन त्रिलोचन जी ने जिस तरह चार पाँच जुमलों में बहस का सार और समाधान पेश किया वह देखने सुननेवालों से ही ताल्लुक रखता था।

पुरलुत्फ आदमी थे। चुटकुले खूब सुनाते। बात को दिलचस्प बना देना भी खूब जानते थे। जमकर ठहाके लगाते और सुनने वालो को हंसा हंसा कर बेदम कर देते। एक बार बोले "कोई भाषा सीखनी हो तो उसकी गालियाँ पहले सीखिए।" क्यों पूछने पर बतलाया - "महामना मदन मोहन मालवीय ने महाराष्ट्र में एक सभा में अपने भाषण में चोट शब्द का इस्त्तेमाल किया तो ठहाका लगने लगा। महामना ने आहत होकर कहा आपके इस व्यवहार से मुझे फिर चोट कगी है। ठहाके चौगुने हो गए। बगल में बैठे मराठीभाषी सज्जन ने उन्हें टोका - आघात कहिए चोट यहाँ गाली है।" (क्रमश:....)

Monday, December 10, 2007

कला कम्यून; कल आज और कल

उदय यादव
सपने तो बचपन के हैं - देश के लिये समाज के लिये कुछ करने के। इन्हीं सपनों के उधेड़ - बुन में जवान हुआ। गांव, कस्बा, मुहल्ला से गुजरते हुए शहर पहुँचा (ढेर सारे दोस्त वहीं छूट गये)। डर लगा कि कितने अकेले हो गये। अलग-अलग जगहों से आई जमात मिली तब लगा कि कितने भाग्यशाली थे हम।
अभी अकादमिक पढ़ाई में मन रमा ही था कि चारों ओर हो रही उठा - पटक ने फिर बचपन के भूत को जगा दिया। वहीं इसे जड़ जमाने के लिए आधार भी मिला लेकिन समीकरण बदल गया। बचपन में हम अधिकारी थे सवाल पूछने के लिए लेकिन अब जवाब के लिए जिम्मेदार हो गये। निज के लिए पढ़ाई और देश समाज के लिए नाटक, स्टडी सर्किल और आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे। पता नहीं चला कि कब निज हाशिए पर चला गया। लगभग हम सभी पूर्णकालिक हो गये। घर - परिवार, अपनों (तथाकथित) द्वारा बस एक सवाल -’ नाटक करते हो और क्या करते हो? जीवन कैसे चलेगा?..’ इस पर हमलोग सामने वाले को नासमझ और तुच्छ मानकर ही जवाब देते। लब्बो - लवाब यह कि जीवन से ज्यादा देश और समाज को खतरा है उसे बचाने की कोशिश करो। इस पर वे चुप्पी साध लेते। लेकिन मौका मिलते ही फिर दाग देते सवाल। अब इनके सवालों का परवाह किये बिना स्कूल - कालेज, विश्वविद्यालय, दफ्तर में जाकर अपनी जमात तैयार करने लगे। इसमे कुछ हमराही, कुछ समर्थक और कुछ दयानिधान भी बन जाते। जो मौके - बेमौके आर्थिक मदद और नैतिक समर्थन करते रहते।
हम लोगों में कई तरह के लोग थे - सीधे-साधे, गुस्सैल, डरपोक, हिम्मती, अपने में गुम, खोये - खोये से, नशेड़ी, चालबाज़ आदि-आदि लेकिन बुद्धि के सब धनी थे। भाषण देना, गाना गाना, लिखना, पेंटिंग-स्केच, पोस्टर, अभिनय, राजनितिक, सामाजिक, सैद्धान्तिक बहस और समाज काल परिस्थिति को समझने के लिए खूब पढ़ाई हमारी फितरत थी। धीरे - धीरे आकादमिक पढ़ाई से नाता टूट ही गया।
समय के साथ - साथ ’ नाटक करते हो और क्या करते हो?’ वाला सवाल अपना सवाल बन गया। ग्रुप में एक बेचैनी घर कर गयी। बिना व्यवस्था बदले कुछ नहीं होने वाला। सवाल पहाड़ की तरह खड़ा हो गया। समाधन के लिये कुछ ने पार्टी की राह चुनी, कुछ ने निजि धंधे शुरू किये, कुछ ने महानगरों की ओर रूख किया और कुछ वहीं डटे रहे। यहां व्यवस्था फिर आड़े आयी और हम जहां के तहां हो गये। लेकिन जहां-जहां हम गये सवाल पीछा करता रहा। अलग - अलग मौकों पर अलग- अलग रुप में। भागने की कोशिश करते सामने आ खड़ा होता। सब कुछ भुलाकर सो जाते कम्बख्त सपने में भी आ धमकता। खूब रंग दिखाया, कई कमाल किया और करवाया भी। अब तक हम सबको पर जम गये थे। तर्कों की दुनियां हमारी मुठ्ठी में थी। हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। लेकिन बन्धु एक चीज़ बिगड़ गयी। दो फांक हो गयी। एक तरफ खड़ा हुआ व्यक्ति और दूसरी तरफ वैचारिक समूह। आइये वैचारिक समूह वाली राह पर चलते हैं।
तमाम उठा पटक और ऊबड़ - खाबड़ राहों से गुजरते हुए बुनियादी सवाल को केन्द्र में लाया गया। मत बना कि चलो नए सिरे से फिर शुरू करते हैं और शिद्दत से खोजते हैं कला में जीवन की राह।
"कला कला के लिए न हो जीवन के लिए हो" इस मूल के साथ खोज शुरू हुई।
1996. बनारस. किसान आन्दोलन के साथियों के सौजन्य से एक नाटक की टीम के साथ के गांवों का दौरा। लोक जीवन और लोक संस्कृति से रुबरू होते ही मानों जमीन मिल गई। उर्वरक जमीन। यह तय है कि अगर इससे कट गये तो सूख जायेंगे (गलत फहमी न हो कि कट कर सुख पायेंगे)। लहलहाती ऊर्जा से लबरेज बनारस लौटे। नौकरी पेशा, दुकानदार, मजदूर और छात्रों के बीच संपर्क शुरू हुआ। ’हम बदलेंगे तो जग बदलेगा’ की राह (जो चोरी छिपे तमाम प्रगतिशीलों के दिमाग में अपनी जगह बनाये हुए है) के बजाय "व्यवस्था बदलेगी तभी समाज और लोगों का जीवन बदलेगा" की राह पर चल पड़े। व्यवस्था को बदलने के लिए व्यवस्था चाहिए।
इसी सिस्टम (Mother organisation: Centre for Research and Application in Folk arts Film & Theatre - CRAFFT) को बनाने की एक कोशिश है "कला कम्यून"
पिछले दस सालों से कला कम्यून के लोग ( दर्जनों लोग आये और गये भी ) जीवन, रचना, विचार और आन्दोलन को सामूहिक तरीके से तय कर रहे हैं। नाटक - गायन टीम, फिल्म सोसाइटी, चित्रकला, मूर्तिकला, ग्राफिक डिजाइन, कविता/गद्य पोस्टर, सेमिनार, विचार गोष्ठी, पुस्तकालय, स्टडी सर्किल व कला आयोजनों के जरिए समाज से रुबरू होते रहते हैं। सब एक छत के नीचे रहते हैं। सामूहिक मेस में खाना खाते हैं। बुद्दिजीवियों, कलाकारों, प्रगतिशील खेमों, आम-जन और साथ ही साथ देश-विदेश में फैले उन तमाम दोस्तों से संपर्क - संबन्ध बनाकर नित नये प्रारुप को गढ़ने की कोशिश में रहते हैं। निजी जीवन के लिए कला से सम्बन्धित कमर्शियल फर्म ( Vikalp Communications) चलाते हैं।
फिलहाल आज इतना ही। आगे पिछ्ली यात्रा के अनुभव, आने वाले कल के लिए आज की समझ और तमाम रचनाकारों के रचना संसार के साथ आते रहेंगें। (क्रमश:.......)

चलिए....
कन्धे से कन्धा मिलाते हैं कवि शम्भुदत्त शैलेय से। जो रुद्रपुर के निवासी हैं। राजकीय महाविद्यालय, खटीमा में पढ़ाते हैं........