Sunday, March 22, 2009

भारतीय कला का आत्मसम्मान विहीन पिछला दशक

आजादी के बाद भारतीय साहित्य, संगीत, नाटक और चित्रकला आदि को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय और राज्य कला अकादमियों की स्थापना की गयी. इन अकादमियों की स्थापना के पीछे वास्तव में क्या उद्देश्य था यह आज इतिहासवेत्ताओं के लिए शोध का विषय हो सकता है. पर लगभग पाँच दशकों से लम्बे इनके अस्तित्व के बाद यह स्पष्ट है कि जनता की मेहनत की कमाई से वसूले गये सरकारी करों के पैसों पर बुध्दिजीवियों, साहित्यकारों और कलाकारों के लिए अपनी संकीर्णता प्रमाणित करने का एक सरकारी मंच बनने के अतिरिक्त ऎसी अकादमियों ने कुछ नहीं किया. समकालीन भारतीय कला के विकास के लिए बनी ललित कला अकादमी के अलावा भी हमारे देश में कई गैर सरकारी कला संस्थाएँ सक्रिय हैं. यदि गैर सरकारी संस्थाओं के बनने के पीछे भूमि और सम्पत्ति सम्बन्धी सरकारी प्रतिबन्धों और कर सम्बन्धी आर्थिक नियन्त्रक नियमों का ठेंगा दिखा कर अपना कार्य व्यापार चलाए जाने और साथ ही कलाप्रेमी कहलाने के दोहरे लाभ के प्रति प्रतिष्ठानों के लोभ को यदि नज़रअन्दाज कर भी दिया जाए फिर भी गैर सरकारी और सरकारी कला अकादमियों का चित्रकला और चित्रकारों के बारे में उनके रवैयों में अदभुत साम्य नज़र आता है. कला के प्रति इन संस्थाओं के सामन्ती नजरिये का ही फल है कि वे कुश्ती, मुक्केबाजी, तीरन्दाजी और दौड़ जैसी क्रीङा प्रतियोगिताओं की तरह चित्रकला के लिए भी प्रतियोगिताओं का हास्यास्पद आयोजन कर, कलाकार की कृतियों का मूल्यांकन करने की हिमाकत कर पाते हैं. केन्द्रिय ललित कला अकादमी तो न केवल अपनी वार्षिक प्रदर्शनी में चयनित कलाकारों को ही अकादमी के सदस्य चुनने के लिए मतदान के योग्य मानता है बल्कि ऎसे कलाकारों के लिए परिचय-पत्र भी जारी करता है. अर्थात यदि कोई ललित कला की वार्षिक प्रदर्शनी जैसी सामन्ती व्यवस्था से सहमत न हों तो वह भारत में, सरकारी अर्थ में कलाकार ही नहीं है. दुर्भाग्य से कला अकादमियों की इन गैरलोकतान्त्रिक सामन्ती हरकतों के खिलाफ हमारे देश के चित्रकारों ने कभी सवाल नहीं उठाया. उन्होंने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि वे कवि, लेखक, रंगकर्मी या किसी अन्य कलाकार के साथ एक कतार में खड़े हैं या नहीं; क्या कोई अन्य कला अकादमी भी कला और कलाकारों के मूल्यांकन में खिलाड़ियों के मूल्यांकन की रीति अपनाती है; क्या कोई कवि या लेखक अकादमी द्वारा सरकारी मान्यता प्राप्त कवि-लेखक-रंगकर्मी होने का परिचय-पत्र पाकर इठलाता है.
यह सत्य है कि मामूली जोड़-तोड़ से ललित कला अकादमी जैसी संस्थाओं से परिचय-पत्र, पुरस्कार और उपाधियाँ तो सहज ही मिल सकती है और मिलती है पर अपने आत्मसम्मान और मूल्यों की रक्षा स्वयं एक चित्रकार को ही करना होता है - चित्रकारों के एक बहुत बड़े वर्ग ने इस विषय पर सोचने की जरूरत ही नहीं महसूस की. ऎसे विवेक विहीन चित्रकारों का अन्य रचनाकारों से सम्पर्क कट जाना- ललित कला और गैर सरकारी कला अकादमियों की देन के रूप में देखा जाना चाहिए.
सन १९४७ के बाद हमारे देश में संसदीय व्यवस्था ने एक खास वर्ग की सेवाओं में अपने अस्तित्व की सार्थकता खोजी जिसके फलस्वरूप सातवें और आठ्वें दशक के दौरान नवधनाढयों का एक विशाल वर्ग विकसित हुआ जो बहुत कम समय में सरकारी संरक्षण में बेलगाम मुनाफाखोरी, सट्टेबाजी के जरिए अकूत धन इकट्ठा करने में सफल रहा. यह सर्वथा एक नया वर्ग था जो आज़ाद हिन्दुस्तान में केन्द्रीय शक्ति के रूप में सामने आया. इस वर्ग ने श्रम और आर्थिक समृध्दि के बीच के रिश्ते को चुनौती दी और बाजार में निवेश के नाम पर सरकार द्वारा प्रायोजित सट्टेबाजी में अकल्पनीय धन कमाने में सफल रहा. इस कमाई में उनका श्रम नहीं था बल्कि करोड़ों श्रमिकों के श्रम और उपभोक्ताओं के लूट से ये पैसा आ रहा था. लिहाजा लखपति से अरबपति बनने में इस वर्ग को बहुत कम समय लगा.
यह वर्ग शक्ति सम्पन्न था. इसने राजनीति, धर्म, मनोरंजन से लेकर आधुनिक चकलों में अपना अधिकार जमाया. इसी श्रॄंखला में इसने धननिवेश के नये तरीकों को तलाशा. जमीन, शेयर आदि पर पैसा लगाने का तरीका पुराना पड़ रहा था. लिहाजा इस वर्ग ने दुनिया के दूसरे पूँजीवादी देशों की ओर देखा जहाँ चित्रकला में पैसा लगाने की परम्परा पुरानी थी. हिन्दुस्तान में कलाकृतियाँ बड़ी तादाद में सहज और कम दाम में उपलब्ध थी- जिसके चलते जल्द ही इस तबके को कला खरीद-फरोख्त के धन्धे में रस मिलने लगा था. इस वर्ग की यह मजबूरी थी कि खजाने में करोड़ों रुपये होने के बावजूद भी वह एक कविता, एक कहानी या एक नाटक या गीत खरीद कर अपना मालिकाना सिध्द नहीं कर सकता था इसीलिए इनका कला प्रेम चित्रकला तक सीमित रहा. कला व्यापार, एक ओर जहाँ उन्हें कला रसिक या कला पृष्ठपोषक होने का सुख देने लगा (जो ज़मीन या शेयर का धन्धा उन्हें कभी नहीं दे सकता था) वहीं एक अस्वाभाविक मुनाफा भी उन्हें मिलने लगा.
इसके समानान्तर चित्रकार एक सर्जक के रूप में साहित्यकार, रंगकर्मी या अन्य कलाकर्मी से बहुत पीछे रह गया. उनके बीच किसी तरह की समानता खोजना अब कम-से-कम भारत में तो कठिन से कठिनतर होते जा रहा है. सृजन के नाम पर आज अपनी परम्परा से कटकर भारतीय चित्रकारों का एक वर्ग पश्चिम के सौ साल पहले के असफल पर चौंका देनेवाले कला आन्दोलनों का अर्थहीन अनुकरण कर रहा है. दो विश्वयुध्दों के बीच फँसे समय में दादावाद और उत्तर दादावाद की सामाजिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि और मौजूदा भारत के 'इंडिया शाइनिंग' और 'इं ०२१ क्रेडेबिल इंडिया' जैसी परिस्थियों के बीच के अन्तर को समझने और उनकी विसंगतियों को पकड़ने का बौध्दिक संसाधन ऎसे चित्रकारों के पास, निश्चय ही नहीं है. और इन्हीं कारणों से एक चित्रकार अपने समय के साहित्यकार, रंगकर्मी और रचनाकारों की कतार से निकल कर 'माल' बनानेवाले पर कलाकार कहलानेवाले व्यक्ति के रूप में 'बाजार' में अपनी दुकान चलाने में अपनी शक्ति झोंक रहा है.
भारत में पिछला एक दशक आत्मसम्मानहीन कलाकारों और उनकी कला के विकास का दशक रहा है. यह सत्य शायद समान रूप से सभी कलाकारों पर नहीं लागू होता है. पर समकालीन हर भारतीय कलाकार बाज़ारवाद के गिरफ्त में बन्दी है, यह सत्य समान रूप से समकालीन सभी कलाकारों पर लागू होता है.
चूँकि बाज़ार की अपनी शर्तें होती है जिसके तहत 'कलाकृति' का 'माल' में तब्दील होना प्राथमिक शर्त है. और बाज़ार में किसी माल (ब्रांड) के बिकने लिए उसका विशिष्ट होना और उसका दूसरे ब्रांडों से भिन्न होना जरूरी है. साथ ही विपणन (मार्केटिंग) के लिए विज्ञापन के लिए कई कलाकारों ने अपने आत्मसम्मान को ताक पर रख तमाम अर्थहीन हथकंडे अपनाए. उन्होंने नेताओं-अभिनेताओं और उद्दोगपतियों के साथ मिलकर चित्र रचने का नाटक रचा. और चित्रकला को प्रदर्शन कला की ओर ले जाने की कोशिश की. सत्ता पक्ष के नेता पी चिदम्बरम, प्रफुल्ल पटेल, अम्बिका सोनी, शाहरुख खान, दिलीप कुमार, सायरा बानो जैसे अभिनेता और रतन टाटा सरीखे उद्दोगपतियों ने देश के शीर्षस्थ कलाकारों के कैनवासों पर कूची फेरने का महज सुख ही नहीं लिया बल्कि इनके 'मिडास-स्पर्श' से चित्रों को बाद में ऊँची कीमत पर बिकने का आधार भी मिला. इसे लेखक-कबि-रंगकर्मी, गायक आदि कलाकारों का भाग्य ही कहा जाएगा कि राजनीति या पैसे की ताकत के बल पर उनकी कला में कोई इस प्रकार का शर्मनाक हस्तक्षेप करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है. चित्रकारों के आत्मसम्मानहीन रवैयों के नये नये स्वरूप हमें आनेवाले समय में और भी देखने को मिलेंगे. क्योंकि यह सब उस बाजार के नियमों के तहत हो रहा है जिसमें कलाकार एक 'माल-निर्माता' से ज्यादा कुछ नहीं है.
बाज़ार का यही पक्ष कला के लिए संकट और चिन्ता का विषय बन जाता है, क्योंकि इस कार्य-व्यापार में कला का मान निर्धारण प्राय: असम्भव हो जाता है. ऊँचे दामों में बिकनेवाली कलाकृतियों को समाज प्राय: बेहतर कलाकृति मानने की भूल कर बैठता है. सफल चित्रकारों का अनुकरण करना नवोदित कलाकारों के लिए प्राय: सहज आकर्षण बन जाता है. कला में श्रेष्ठ-सामान्य-निकृष्ट की पहचान धीरे-धीरे विकृत होने लगती है. ऎसे वक्त कला समीक्षकों का एक महत्वपूर्ण दायित्व हो जाता है कि बाज़ारवाद की तमाम भ्रामक स्थितियों में भी बेहतर कला के मानदंडों को चिन्हित करता रहे. पर दुर्भाग्य से एक ओर जहां बाजारवाद के चंगुल के बाहर कला समीक्षक भी नहीं है, वहीं दूसरी ओर इस कलाबाज़ार ने अपने लिए एक भाषा भी तैयार की है. अँग्रेजी के अतिरिक्त हिन्दी या किसी अन्य प्रान्तीय भाषा में कला समीक्षाएँ लगभग अर्थहीन होती जा रही है. ये समीक्षाएँ न तो बाज़ार को प्रभावित कर सकती है और न ही जनता को. सार्थक समीक्षा के अभाव का यह समय चित्रकला में अराजकता और तर्कहीनता के गहराने का समय भी है. नवधनाढ्य के जिस वर्ग की हमने यहाँ चर्चा की है, वह कला बाज़ार की संचालक शक्ति के रूप में पिछले एक दशक में और भी अधिक सक्रिय हुआ है. कला में 'नयेपन' की माँग यहीं से उठ रही है. इसी की माँग पर पिछले दिनों उत्तराधुनिक चित्रकला के नाम पर यौन विकृतियों को दर्शाते बड़ी तादात में चित्र बने. भारतीयता के नाम पर 'तन्त्र' को आधार मान ऎसे चित्रों की विदेशों में खासी माँग रही है. इन्टाँलेशन कला के नाम पर आधी सदी पुरानी पाश्चात्य कला का भारतीय संस्करण भी चौका देनेवाले रहे. कला में प्रयोग और परिवर्तनों की गति, संग्रहाकों की प्रवृति के अनुकूल तो है पर व्यापक समाज कहीं अधिकांश भारतीय चित्रकारों से बहुत पीछे छूट गया.
इस सत्य के साथ, कम-से-कम दु:खी होने जैसी बात नहीं हुई है, क्योंकि पिछले एक दशक में बाज़ारवाद के घटाटोप में 'श्रेष्ठ' 'अधिक बिकनेवाले' 'मँहगी बिकनेवाली' 'नीलामी में कीर्तिमान स्थापित करनेवाली' ऎसी समकालीन कला से अगर आम जनता अपरिचित ही रही तो उसने बहुत बड़ा या सार्थक कुछ नहीं खोया है.
अशोक भौमिक
प्रसिध्द चित्रकार व समीक्षक
(समयान्तर से सभार)

Friday, February 27, 2009

युवाओं से बदला ले रहा है संघ परिवार

कला कम्यून वाराणसी के वार्षिक कला उत्सव 'उम्मीदें' का अस्सीघाट पर उद्घाटन करते हुए जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि

युवाओं से बदला ले रहा है संघ परिवार
"मंदी और आतंकवाद से जूझते भारत की तस्वीर निराशा की नहीं बल्कि युवाओं की उम्मीदों से लवरेज है. वसंत युवाओं का मौसम है. युवावस्था के उत्सव का मौसम है." भारत की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा युवाओं का है जिनकी कोमल भावनाओं और भविष्य की उम्मीदों के साथ भारत की राजसत्ता खिलवाड़ कर रही है. एक ओर मुंबई में उत्तर भारतीय नौजवानों पर ठाकरे खानदान हमला कर रहा है. राहुल राज का फर्जी एन्काउन्टर हुआ. वहीं बुजुर्गो के नेतृत्व वाला संघ संप्रदाय वैलेन्टाइन डे या मंगलोर में पब में युवतियों की भागीदारी के खिलाफ हिंसक अभियान चला रहा है. संघ संप्रदाय को यह एहसास है कि भारत के युवाओं की उम्मीदें और सपने संघ के दृष्टिकोण से मेल नहीं खाते. इसी काशी में रहते हुए महाकवि जयशंकर प्रसाद ने लिखा था -
काम मंगल से मंडित श्वेय सर्ग, इच्छा का है परिणाम;
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल बनाते हो असफल भवधाम.
जाहिर है कि प्रसाद जी प्रेम की इच्छा को सृष्टि के मंगल का उदगम मानते थे. आज संघ परिवार युवाओं की प्रेम भावना के खिलाफ है. हमला बोलकर सृष्टि और संस्कृति पर ही हमला कर रहा है. इस हमले का सृजनात्मक प्रतिरोध युवावर्ग का दायित्व है.
गोविन्दाचार्य चिल्लाते रह गए लेकिन संघ ने राजग सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था और कानूनी ढ़ांचे के अमेरीकीकरण का अनुमोदन करना नहीं छोङा. अमरीकापरस्त संघ परिवार विदेशी पूंजी के साथ गठजोड़ को छिपाने और देशी दिखने की खातिर वेलेन्टाइन डे पर हमले जैसे प्रतीकात्मक, हिंसक कार्यवाई कर रहा है. वह चाहता है कि युवा प्रेम न करें बल्कि नफरत करना सीखें, धर्मस्थल तोड़े, उड़ीसा और गुजरात जैसे जनसंहारों का हिस्सा बनें. यही युवाओं के लिए उनका कार्यक्रम है. इसका पुरजोर प्रतिरोध युवा ही करेंगे.
संस्कृति का क्षेत्र उदान्त होता है. अच्छे विचार और भावनाएं हर कहीं से ली जा सकती है. वेलेन्टाइन का नाम पश्चिमी है लेकिन उस संत ने प्रेम की जिस भावना का संदेश दिया वह सार्वभौम है. इसी तरह बसंत ऋतु और यौवन भी सभी संस्कृतियों का हिस्सा है. प्रसाद जी ने चंद्रगुप्त नाटक में यूनानी और भारतीय इन दो युद्धरत कौमो के बीच सामंजस्य और प्रेम का रिस्ता कायम कराया है. चंद्रगुप्त का विवाह यूनानी सुंदरी कार्नेलिया से कराया है. क्या संघ वाले प्रसाद से ज्यादा भारतीय संस्कृति जानते है ?
आज की कला प्रदर्शनी बनारस में स्पदित बहु-सांस्कृतिक भारत उसके सामान्य नागरिक, स्त्रियों और बच्चों की उम्मीदों और सपनों को अभिव्यक्त करती है.

Wednesday, February 25, 2009

"अस्सी पर छायी उम्मीदें 2009"

शहर के युवा कलाकारों की संस्था 'कला कम्यून, क्राफ्ट' द्वारा दो दिवसीय उम्मीदें 2009 कला उत्सव सम्पंन हुआ. उत्सव पर कलाकारों ने घाट को झंडे-पतंगी और कलाकृतियों से सजा दिया . चारों ओर रंग-ही-रंग बिखरे थे.... बसंत सा माहौल था.
कला उत्सव में सबसे पहले कलम और कूंची के सिपाही स्व. सुशील त्रिपाठी को अश्रूपुरित श्रध्दांजलि दी गई. दो मिनट का मौन रखा गया. इस वर्ष उत्सव को स्व. सुशील जी के विरासत के रूप में मनाया गया. इसी अस्सी पर सुशील जी ने इंदिरा गांधी के इमरजेंसी के खिलाफ सड़क पर पोस्टर प्रदर्शनी की शुरूआत की थी. सत्ता के खिलाफ उनकी मुहिम 'प्रतिशोध के खिलाफ प्रतिरोध का सृजन' उम्मीदें 2009 कला उत्सव के रूप में निरंतर जारी है. कला उत्सव का उद्घाटन स्मृति स्तंभ जिसे आम आदमी के प्रतिरोध के रूप में बनाया गया , उस पर गुब्बारा उड़ाकर जन संस्कृति के महासचिव प्रणय कृष्ण ने किया. कला उत्सव में इस वर्ष पूर्वांचल के विभिन्न हिस्सों के साथ ही उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के कलाकारों की भागीदारी रही. छत्तीसगढ़ के राजेन्द्र ठाकुर ने लाल कुर्सियों से भव्य इन्सटालेशन किया. वेलेन्टाइन डे पर प्रेस के पक्ष में उनकी यह कृति कुर्सियों के संयोजन में जीवन के उतार-चढ़ाव का संजीदा प्रदर्शन थी. कलाकृतियों में जीवन के विभिन्न पक्ष दिखें.
इसबार उत्सव में विशिष्ट कवियों की कविताएं भी शामिल की गई है, दिनेश कुमार शुक्ला, "धूमिल - और जो चरित्रहीन है, उसके रसोई में पकने वाला चावल कितना महीन है", "कैफी आजमी - इक कदम जो बढ़ता है तू मंजिल की तरह, इक दिया और सरे राह आलम जलता है" साथ ही नज़र कब्बानी, नावारुण भट्टाचार्या, मंगलेश डबराल आदि कवियों की पोस्टर लगे.
कला उत्सव की एक खासियत सांस्कृतिक कार्यक्रम भी रहा. पटना की मशहूर नाट्य टीम हिरावल ने जहां अपने जनगीतों से क्रांतिकारी चेतना के साथ सत्ता पर करारा व्यंग्य किया वही लोकगीतों से लोगों को उनकी ताकत का अहसास कराया.
उम्मीदें 09 कला उत्सव के दूसरे दिन भी विदेशी और शहर के लोगों का तांता लगा रहा. इस वर्ष उम्मीदें 09 कला उत्सव में 10 शीर्ष सम्मान दिया गया इसमें बनारस को 5, छत्तीसगढ़ 2, उङीसा 1, फैजाबाद और दिल्ली के कलाकारों को 1-1 सम्मान मिला. यह सम्मान चित्रकला, मूर्तिकला, छायाचित्र, ड्राइंग, और इन्सटालेशन कृतियों में दिया गया. मूर्तिशिल्प में स्मृति ने बिल्ली की आकृति को गढ़ा है जो हमारी जीवों के प्रति संवेदना का ....ओतक है. प्रकृति के नष्ट होने के साथ जहां एक ओर मौसम प्रभावित हो रहा है. वही जीव जगत पर असर पङ रहा है. मुर्तिशिल्प में प्रशान्त कु. विश्वकर्मा ने इन्हीं भावनाओं को गढ़ा है. लाल कुर्सियों से संयोजन कर छत्तीसगढ़ के राजेन्द्र ठाकुर व धनंजय पाल ने कुर्सी के खेल को दिखाया है. इसमें प्रेम और घृणा की संवेदना को पकङा है जिसमें पानी के अभाव के बीच जलती लौ का छायांकन है. ड्राइंग में उत्कर्ष आनंद ने अक्षशंकण के माध्यम से बनारस की छवि पकङी है यह एक अनूठा प्रयोग है.
चित्रकला में दिल्ली के रंजित सिंह की पेन्टिग ने दर्शकों को अपनी ओर खींचा. इसमें चाय वाला बच्चा केतली के साथ ध्यान की मुद्रा में है. छत्तीसगढ़ की पिनाकी मुखर्जी ने "सौ-सौ चूहे खा कर बिल्ली चली हज करने" का पोट्रेट किया. उड़ीसा के श्रीमन अंशुमन ने नारी जीवन के संघर्ष और विद्रुप स्थिति को चित्रित किया. वाराणसी के अहसान एम. रिजवी ने भी नारी की एक संवेदनशील सौन्दर्य को पकङा है. "उम्मीद" जिसपर दुनिया कायम है. कला उत्सव के सांस्कृतिक संध्या में, क्राफ्ट की नाट्य एवं गायन इकाई "दस्ता" द्वारा गीत और नाट्क "मास्टर-माइंड" का मंचन किया गया. और अवधेश ने बुश को पड़े जूते पर कविताओं का पाठ किया.
कलाकारों को सम्मान पत्र क्राफ्ट के अध्यक्ष वी. के. सिंह और समकालीन जनमत के प्रबंध संपादक के. के. पाण्डेय द्वारा दिया गया. धन्यवाद ज्ञापन में कला कम्यून के संयोजक अर्जून ने अस्सी वासियों का धन्यवाद देते हुए कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा की.

Thursday, February 5, 2009

प्रतिक्रिया और प्रतिशोध के खिलाफ प्रतिरोध का सृजन




उम्मीदें 2009

साल 2008 प्रतिक्रिया और प्रतिशोध से, लहूलुहान
मुम्बई के महासमुद्र में दूब गया
प्रतिक्रिया और प्रतिशोध
जिसे आदमी के जिन्दा होने और सोचने पर एतराज है
जिसे बच्चों के मुस्कुराने और फ़ूलों के खिलने पर एतराज है
जिसे कब्रों और श्मसानों में जिन्दगी की आहट से खतरा है
जिसे आज गर्भ में आकार ले रहे कल की कुल्बुलाहट से खतरा है
इसलिए वह मिटा देना चाहता है समय और सोच को,
सपनों और संभावनाओं को डालरों और दलालों से,
मुस्कुराहटों को मिसाइलों से और प्रतिरोध को प्रतिशोध से
वह बना देना चाहता है आदमी को
धौस-धमक से कूट-पीट कर, नर्म और नाकारा-पिलपिली लुग्दी
जिससे वह बना सके व्यवस्था के मनचाहे पुर्जे,
मनचाहे मुखौटों वाले दलाल गुड्डे
जो व्यवस्था की बिसात पर शातिर चालों का मोहरा बन सकें।
लेकिन गजब हो गया
वक्त ने रुकने और आदमी ने मरने से इन्कार कर दिया
और साल 2009 में प्रतिरोध का सूरज
प्रतिक्रिया और प्रतिशोध से लड़ता गाजा-पट्टी की सडकों पर निकल आया
जिंदा होने की जिद की कीमत
जन्मे-अजन्मे बच्चों के चीथड़े हो गयें।

इसलिए बेहद जरूरी है कि आदमी प्रतिरोध का परचम बुलन्द करे,
और जो कुछ भी हो हाथ में,
कलम, कूंची, कूदाल, फूल, पत्थर या जो भी,
उसे हथियार बना, प्रतिरोध के सृजन में शामिल हों
अहमद फ्राज की कविता, मंजीत बाबा के चित्रों
और सुशील त्रिपाठी के सृजन धर्मिता के वारिस हों।

उम्मीदें 2009 प्रतिक्रिया और प्रतिशोध के खिलाफ
प्रतिरोध के सृजन के नाम है

आप जरूर शामिल हों।