सुनने पढ़ने में सतर्क थे। एक बार विषय ठीक से पता न होने के कारण मैंने उर्दू कविता में सामाजिक बदलाव के बदले उर्दू कविता का इतिहास ही लिखमारा। एक साथी ने कमेंट किया "अजय जी बदलाव की चर्चा करने के बजाय इतिहास ही लिख लाये"। अध्यक्षीय वक्तव्य में त्रिलोचन जी ने कहा, " आधार पत्र में तमाम कवियों के संदर्भ सामाजिक बदलाव के ही संदर्भ हैं। लगता है आपने ध्यान से नहीं सुना है।" जाहिर है त्रिलोचन जी ने ध्यान से सुना था। एक गोष्ठी में मिलते ही कहा, "वामिक साहब की आत्मकथा 'समय' के हर अंक में नहीं छाप रहे हो।" मैंने कहा, "नहीं हर अंक में छ्प रही है।" जौनपुर लौटकर कन्हैया, जिस पर अखबार छ्पवाने की जिम्मेदारी थी, जिक्र किया तो उसने कहा, "ठीक कह रहे थे, एक अंक में नहीं जा पाई थी।" यानी 'समय' ध्यान से पढ़ते थे और आत्मकथा का लगता है इन्तज़ार करते थे।
लखनऊ के दलित साहित्य सेमिनार के मौके पर मुझे त्रिलोचन जी के साथ उस कमरे में ठहरने का सौभाग्य मिला जिसे दिन में कामरेड विनोद मिश्र ने खाली किया था (अपनी लुंगी भी वे खिड़की पर टंगी हुई भूल गये थे)। तब तक सर्दी बाकायदा शुरु नहीं हुई थी लेकिन गेस्ट हाउस लान के बीच और नहर के किनारे होने के कारण कमरा ख़ासा ठंडा था। सोने के लिये त्रिलोचन जी ने अपनी ऊनी चादर निकाली और मेरे पास कुछ न देखकर सलाह दी कि दरवाजों के पर्दे उतार लीजिये। मैंने कान नहीं दिया और एक रिश्तेदार के लिये भिजवाई आशा की साड़ियाँ ओढ़कर सो गया। रात ऎसी गुज़री कि अब भी याद है। और उनकी नेक सलाह भी "पर्दे उतार लीजिये"।
सेमिनार के बाद अतिथिगृह जाते हुए टेम्पो में मेरी किसी बात पर बोले, " आपसे कौन जीत सकता है? आप तो अजय हैं।" मैंने कहा अजय माने तो हुआ जिसकी जय न हो। बोले, "नहीं जिसको जीता न जा सके।" और मानस की एक अर्ध्दाली सुना दी "जीत सकै को अजय रघुराई"। फिर बताया, "जाट कोई एक जात नही है। सभी जाति के लड़ाकुओं को मिलाकर बनी जात है।" प्रमाण पेश किया - "अवधी में जाट का अर्थ होता है लड़ाकू। कहते हैं फलनवा बड़ा जट्ट आदमी है"। यानी वे सिर्फ मुझे, भाई और पिता को ही नहीं जानते थे; खानदान की खबर भी रखते थे।
वहीं अतिथिगृह के भोजनकक्ष में डोंगों और प्लेटों के आदान-प्रदान के बीच किसी ने हरी मिर्च की प्लेट मेरी तरफ बढ़ाई-"क्या आप इसे लेना पसन्द करेंगे?" मेरे मुँह से निकला- "मैं उसे देखना भी पसन्द नहीं करता।" बातचीत के दौरान खाने-पीने की चीजों में औषधि गुणों की बात आ गई। त्रिलोचन जी आदत के अनुसार कोर्सेस में लंच ले रहे थे यानी दाल रोटी सब्जी बारी-बारी से निपटा रहे थे। बिना दाहिने बायें देखे बोले, "जिसे अजय जी देखना भी पसंद नहीं करते उसमें भी अनेक औषधि गुण हैं। इलाहाबाद में राष्ट्रीय परिषद की बैठक के दौरान जब हमलोग नर्मदेश्वर जी के यहाँ से खाना खाकर आ रहे थे त्रिलोचन जी एक पेड़ के पास ठिठ्क गए। बोले, "यह बकाइन है, भैषजशास्त्र में इसे महानीम कहते हैं। इसमें बड़े औषधि गुण होते हैं।" उनके इस गुण के बारे में अवधेश जी से सुन चुका था। कितने ही अनाम पेड़ पौधों के नाम उन्हें उनसे पता चले थे। कितने ही फूलों के संस्कृत नाम भी। वे माटी से जुड़े निहायत ज़मीनी आदमी थे। तभी माटी की गंध से सुवाषित ऎसी अमर रचनाओं का भण्डार छोड़ गये हैं वे अपने पीछे। और भी उस दौर में जब हिन्दी कविता आयातित विचारों से इस कदर आक्रांत थी। अच्छे-अच्छे विदेशी मुहावरों का अनुवाद कर रहे थे नये के नाम पर।
अपने पिता की जन्मशताब्दी की अध्यक्षता करने के लिए मैंने उन्हें आमंत्रित किया। जवाब आया- " आप बुलायें और मैं न आऊँ यह कैसे हो सकता है।" इस अवसर पर पिता के तीन कर्मक्षेत्रों - स्वतंत्रता संग्राम, पत्रकारिता और साहित्य पर सेमिनार हुए और इन तीन क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान के लिए तीन लोगों को "समय सम्मान" से सम्मानित किया जाना था। साहित्य के लिये त्रिलोचन जी को चुना गया था। सम्मान समारोह शुरु होने के पहले वे बोले, " आप का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ अब मुझे छुट्टी दीजिये तो ए.जे. पकड़ कर निकल जाऊँ और एक दिन इलाहाबाद भी रुक लूँ।" तब तक सम्मान पत्र फ्रेम होकर नहीं आ पाये थे। मैंने माला और शाल से सम्मान की औपचारिकता पूरी करके उन्हें विदा किया। थोड़ी ही देर में सम्मान पत्र भी फ्रेम होकर आ गया तो भागकर स्टेशन पहुँचा। प्लेटफार्म नम्बर दो पर इलाहाबाद जौनपुर पैसेन्जर का इन्तज़ार करते हुए त्रिलोचन जी एक बेंच पर आसीन थे। मैंने सम्मान पत्र दिया तो रैपर का काग़ज़ हटाकर सम्मान पत्र को देखा और अटैची में रख कर बोले, " इसमें भी एक लतीफा है। जब कोई लिखना बन्द कर देता था तो हम लोग उसे महाकवि की उपाधि दे देते थे।" मैंने सम्मान पत्र में उनके नाम के पहले महाकवि लिखवा दिया था, जो वो थे भी।
एक लतीफा इसमें और रह गया। आशा जिसके सर पर उनके खाने-ठहरने का इन्तजाम था, उनके सहायक से पता करके सब कुछ ठीक ठाक निपटा दिया था। यहाँ तक कि थरमस में गरम पानी भी बिस्तर के सिरहाने रख दिया था। सुबह नाश्ते के लिए दलिया वगै़रह लेकर आयी तो पूछा, " आपको यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं हुई?" वे लोगो से घिरे बतिया रहे थे, मुड़कर बोले, " जिसकी आप जैसी माँ हो उसे भला क्या तकलीफ हो सकती हैं।" आशा खिसिया गई, हो सकता हैं कोई हँस दिया हो। वहाँ क्या कहती मुझको पूरा वाक़या सुनाकर बोली, "तुम्हारे त्रिलोचन जी सठिया गये हैं क्या? भला मैं उनकी माँ जैसी लगती हूँ?" मैंने ठहाका लगाया तो और बौखला गई। मैंने दिलासा दिया, "माँ से उनका मतलब था माँ जैसी देखभाल करने वाला।" तब लगा जैसे उसे अपने किये का प्रतिदान मिल गया है।
लखनऊ के दलित साहित्य सेमिनार के मौके पर मुझे त्रिलोचन जी के साथ उस कमरे में ठहरने का सौभाग्य मिला जिसे दिन में कामरेड विनोद मिश्र ने खाली किया था (अपनी लुंगी भी वे खिड़की पर टंगी हुई भूल गये थे)। तब तक सर्दी बाकायदा शुरु नहीं हुई थी लेकिन गेस्ट हाउस लान के बीच और नहर के किनारे होने के कारण कमरा ख़ासा ठंडा था। सोने के लिये त्रिलोचन जी ने अपनी ऊनी चादर निकाली और मेरे पास कुछ न देखकर सलाह दी कि दरवाजों के पर्दे उतार लीजिये। मैंने कान नहीं दिया और एक रिश्तेदार के लिये भिजवाई आशा की साड़ियाँ ओढ़कर सो गया। रात ऎसी गुज़री कि अब भी याद है। और उनकी नेक सलाह भी "पर्दे उतार लीजिये"।
सेमिनार के बाद अतिथिगृह जाते हुए टेम्पो में मेरी किसी बात पर बोले, " आपसे कौन जीत सकता है? आप तो अजय हैं।" मैंने कहा अजय माने तो हुआ जिसकी जय न हो। बोले, "नहीं जिसको जीता न जा सके।" और मानस की एक अर्ध्दाली सुना दी "जीत सकै को अजय रघुराई"। फिर बताया, "जाट कोई एक जात नही है। सभी जाति के लड़ाकुओं को मिलाकर बनी जात है।" प्रमाण पेश किया - "अवधी में जाट का अर्थ होता है लड़ाकू। कहते हैं फलनवा बड़ा जट्ट आदमी है"। यानी वे सिर्फ मुझे, भाई और पिता को ही नहीं जानते थे; खानदान की खबर भी रखते थे।
वहीं अतिथिगृह के भोजनकक्ष में डोंगों और प्लेटों के आदान-प्रदान के बीच किसी ने हरी मिर्च की प्लेट मेरी तरफ बढ़ाई-"क्या आप इसे लेना पसन्द करेंगे?" मेरे मुँह से निकला- "मैं उसे देखना भी पसन्द नहीं करता।" बातचीत के दौरान खाने-पीने की चीजों में औषधि गुणों की बात आ गई। त्रिलोचन जी आदत के अनुसार कोर्सेस में लंच ले रहे थे यानी दाल रोटी सब्जी बारी-बारी से निपटा रहे थे। बिना दाहिने बायें देखे बोले, "जिसे अजय जी देखना भी पसंद नहीं करते उसमें भी अनेक औषधि गुण हैं। इलाहाबाद में राष्ट्रीय परिषद की बैठक के दौरान जब हमलोग नर्मदेश्वर जी के यहाँ से खाना खाकर आ रहे थे त्रिलोचन जी एक पेड़ के पास ठिठ्क गए। बोले, "यह बकाइन है, भैषजशास्त्र में इसे महानीम कहते हैं। इसमें बड़े औषधि गुण होते हैं।" उनके इस गुण के बारे में अवधेश जी से सुन चुका था। कितने ही अनाम पेड़ पौधों के नाम उन्हें उनसे पता चले थे। कितने ही फूलों के संस्कृत नाम भी। वे माटी से जुड़े निहायत ज़मीनी आदमी थे। तभी माटी की गंध से सुवाषित ऎसी अमर रचनाओं का भण्डार छोड़ गये हैं वे अपने पीछे। और भी उस दौर में जब हिन्दी कविता आयातित विचारों से इस कदर आक्रांत थी। अच्छे-अच्छे विदेशी मुहावरों का अनुवाद कर रहे थे नये के नाम पर।
अपने पिता की जन्मशताब्दी की अध्यक्षता करने के लिए मैंने उन्हें आमंत्रित किया। जवाब आया- " आप बुलायें और मैं न आऊँ यह कैसे हो सकता है।" इस अवसर पर पिता के तीन कर्मक्षेत्रों - स्वतंत्रता संग्राम, पत्रकारिता और साहित्य पर सेमिनार हुए और इन तीन क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान के लिए तीन लोगों को "समय सम्मान" से सम्मानित किया जाना था। साहित्य के लिये त्रिलोचन जी को चुना गया था। सम्मान समारोह शुरु होने के पहले वे बोले, " आप का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ अब मुझे छुट्टी दीजिये तो ए.जे. पकड़ कर निकल जाऊँ और एक दिन इलाहाबाद भी रुक लूँ।" तब तक सम्मान पत्र फ्रेम होकर नहीं आ पाये थे। मैंने माला और शाल से सम्मान की औपचारिकता पूरी करके उन्हें विदा किया। थोड़ी ही देर में सम्मान पत्र भी फ्रेम होकर आ गया तो भागकर स्टेशन पहुँचा। प्लेटफार्म नम्बर दो पर इलाहाबाद जौनपुर पैसेन्जर का इन्तज़ार करते हुए त्रिलोचन जी एक बेंच पर आसीन थे। मैंने सम्मान पत्र दिया तो रैपर का काग़ज़ हटाकर सम्मान पत्र को देखा और अटैची में रख कर बोले, " इसमें भी एक लतीफा है। जब कोई लिखना बन्द कर देता था तो हम लोग उसे महाकवि की उपाधि दे देते थे।" मैंने सम्मान पत्र में उनके नाम के पहले महाकवि लिखवा दिया था, जो वो थे भी।
एक लतीफा इसमें और रह गया। आशा जिसके सर पर उनके खाने-ठहरने का इन्तजाम था, उनके सहायक से पता करके सब कुछ ठीक ठाक निपटा दिया था। यहाँ तक कि थरमस में गरम पानी भी बिस्तर के सिरहाने रख दिया था। सुबह नाश्ते के लिए दलिया वगै़रह लेकर आयी तो पूछा, " आपको यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं हुई?" वे लोगो से घिरे बतिया रहे थे, मुड़कर बोले, " जिसकी आप जैसी माँ हो उसे भला क्या तकलीफ हो सकती हैं।" आशा खिसिया गई, हो सकता हैं कोई हँस दिया हो। वहाँ क्या कहती मुझको पूरा वाक़या सुनाकर बोली, "तुम्हारे त्रिलोचन जी सठिया गये हैं क्या? भला मैं उनकी माँ जैसी लगती हूँ?" मैंने ठहाका लगाया तो और बौखला गई। मैंने दिलासा दिया, "माँ से उनका मतलब था माँ जैसी देखभाल करने वाला।" तब लगा जैसे उसे अपने किये का प्रतिदान मिल गया है।
1 comment:
kuchcha chitra photu hota to aur achchha lagta. aur thoda bat bhi aage badhe. intjar rahega.
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