Saturday, December 22, 2007

..आप क्या सोचते हैं कि कलाकार क्या है? क्या वह कोई मंदबुद्धि व्यक्ति है

कला और उसके रचना संबन्धों के बारे में पाब्लो पिकासो के विचारों का एक कोलाज


कला को क्यों समझें
.....हर कोई कला को समझना चाहता है। कभी हम चिड़िया के गाने को समझने की कोशिश करते हैं। हम रात से, फूलों से और चारों ओर की हर चीज़ से क्यों प्रेम करते हैं? लेकिन जब पेंटिंग की बात आती है तो लोग उसे समझना जरूरी मानते हैं। काश वे पहचान पाते की आखिर कलाकार अपनी अनिवार्यतावश ही काम करता है, कि वह खुद इस संसार का एक मामूली-सा हिस्सा है, और यह कि उसे संसार की उन दूसरी चीज़ों के मुकाबले कोई ज्यादा महत्व नहीं दिया जाना चाहिए, जो हमें अच्छी लगती हैं, हालाकि हम उनकी व्याख्या नहीं कर पाते।
.....लोग अब भी आधुनिक कला को नहीं समझते, लेकिन इसमें न कालाकार का दोष है न लोगों का। इसका कारण यह हैं कि उन्हें कला के बारे में कुछ नहीं सिखाया गया है, लेकिन यह किसी को नहीं सूझा कि लोगों को पेंटिग को देखना भी सिखाया जाये। मसलन यह कि शायद यह रंगो की शक्ल में कविता है, या किसी फार्म या लय का जीवन हो सकता हैं। कुल मिलाकर वे रुपंकर कला की मूल्यवत्ता से पूरी तरह अनजान हैं। (1946)

कला और प्रकृति
.....प्रकृति और कला दो भिन्न चीजें होने के कारण कभी एक चीज नहीं हो सकती। कला के माध्यम से हम अपनी यह अवधारणा व्यक्त करते हैं कि प्रकृति में क्या नहीं है। (1923)
.....प्रकृति एक चीज़ है और पेंटिग एक बिल्कुल दूसरी चीज़। पेंटिग, प्रकृति के बराबर हैं। हमें प्रकृति का बिंब देने के लिए कलाकारों का आभारी होना चाहिए। हम प्रकृति को उनकी आंखों से देखते हैं।

रेखांकन
.....अगर रेखाओं और आकारों का तुक मिल जाये और वे सजीव हो उठें तो यह कविता जैसा होगा। इसे हासिल करने के लिए बहुत ज्यादा शब्दों का इस्तेमाल ज़रूरी नहीं है। कभी-कभी बहुत लंबी कविता की बनिस्पत दो या तीन पंक्तियों में ही कहीं ज्यादा कविता संभव हो जाती है। (1946)
.....जो मैं कर रहा हूँ वह जब मेरे बगैर अपनी स्वतन्त्र बात करने लगे तो समझिए मैं जीत गया। और मेरे ख्याल से मैंने फिलहाल जो पाया है वह इतनाभर है कि मैं रेखांकन की कला में एक कारीगर की अवस्था से आगे चला आया हूं। जब ऎसा होता है कि मैं बोलना बंद करता हूँ और मेरे बनाये रेखांकन ही बोलने लगते हैं और वे मुझसे दूर चले जाते हैं और मेरा उपहास करने लगते हैं तो मुझे लगता है कि मैंने अपना लक्ष्य पा लिया है। (1956)
.....विचार सिर्फ प्रस्थान बिंदुओं की तरह हैं। वे जब दिमाग में आते हैं तो मैं कभी-कभार ही उन्हें पकड़ पाता हूँ। मैं जैसे ही काम करने बैठता हूँ, कलम से दूसरे विचार निकलने लगते हैं। जब एक खाली कागज मेरे सामने होता है तो वह हमेशा दिमाग में घूमता रहता है। इस मामले में मेरी इच्छा जो भी हो, अपने विचारों से ज्यादा दिलचस्प मुझे वह लगता है जो मैं व्यक्त कर रहा हूँ। (1966)

रंग
....फिलहाल रंगों में मेरी दिलचस्पी कम ही है, गुरुत्व में ज्यादा है, और सघनता की तो बात ही क्या है। (1956) आकृतियों की ही तरह रंग भी संवेगों के अनुरूप बदलते रहते हैं।

संग्रहालय
.....संग्रहालयों में ऎसी ही कलाकृतियां होती हैं जो नाकाम रही हों। .....क्या आप हँस रहे हैं? ज़रा सोच कर देखिये और आप समझ जायेंगे कि मैं सही कह रहा हूँ या गलत। आज हम जिन्हें 'मास्टरपीस' कहते हैं, वे सभी कृतियाँ उस दौर के मास्टर्स के बनाए हुए नियमों को तोड़कर बनाई गई थीं। बेहतरीन काम वही है जो साफ-साफ उस कलाकार के किसी ’दोष’ की जानकारी देता हो। (1948)
......अगर आप किसी कलाकृति को नष्ट करना चाहें तो आप कुछ नहीं बस इतना कीजिए कि उसे एक कील पर खूबसूरती से टांग दीजिए और तुरन्त ही आपको उसके फ्रेम के अलावा कुछ नहीं दिखाई देगा। कला को तभी बेहतर देखा जा सकता है जब वह अपनी जगह पर न हो। (1958)

राजनीति
.....आप क्या सोचते हैं कि कलाकार क्या है? क्या वह कोई मंदबुद्धि व्यक्ति है जो अगर पेंटर है तो उसके पास सिर्फ आंखें होंगी, अगर संगीतकार है तो उसके सिर्फ कान होंगे या अगर कवि है तो उसके दिल के हर कोने में एक वीणा बज रही होगी, और यहाँ तक कि अगर वह बाक्सर है तो उसके पास सिर्फ कुछ मांसपेशियां होंगी? नहीं, इसके ठीक उल्टा है। वह पेंटर होने के साथ ही एक राजनैतिक प्राणी है जो दुनिया की भयावह, प्रेमपूर्ण या खुशनुमा घटनाओं के प्रति सतर्क है और लगातार उनके रूपरंग में अपने को ढालता रहता है। यह कैसे मुमकिन है कि आप दूसरों से सरोकार न रखें? किस ठंढी उदासीनता से यह संभव है कि आप अपने को उस जीवन से काट कर रखें जो इतने विपुल स्तर पर आप तक पहुँच रहा है? नहीं, पेंटिंग घरों को सजाने के लिए नहीं है। यह शत्रु के खिलाफ एक आक्रामक और एक रक्षात्मक हथियार है।(1945)
.....हम कलाकार अविनाशी हैं, जेल में भी और यातना शिविरों में भी। मैं अपने कला संसार का खुदा रहूँगा ही, भले ही मुझे काल कोठरी में अपनी गीली जीभ से धूल भरे फर्श पर पेंटिंग करनी पड़े।(1949)

(डोरे एश्टन द्वारा संपादित पिकासो के विभिन्न इंटरव्यू, लेखों और वार्ताओं के चयन की अंग्रेजी पुस्तक "पिकासो आन आर्ट" का मंगलेश डबराल द्वारा अनूदित संकलन से साभार चयनित अंश)

1 comment:

VIMAL VERMA said...

अच्छा लगा,कलाकार की भावनाओं से परिचय हुआ..चहुँ ओर रंग बुखेरते रहें....