Thursday, September 4, 2008

आदिम लय - 6
आदिवासियों में 'जनी शिकार' नाम से उत्सव मनाने की परम्परा चली आ रही है, इस दिन महिलाएं पुरुषों के वेश में शिकार पर जाती हैं, उक्त मूर्तिशिल्प इसी पृष्ठभूमि पर आधारित है.
महिला का दायां हाथ खुद तीर बन गया है जो इस व्यवस्था के प्रति घोर आक्रोश का प्रतीक है ऊपर की ओर लहराते हुए बाल नारीशक्ति, नारी तेवर का प्रतीक है. साथ-साथ मदिरा की हांड़ी को ऊर्जा के रूप में रूपायित किया है.

व्यंग्यात्मक रचनाएं
समकालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थियों के ऊपर केन्द्रित थी. 'डेमोक्रेसी' प्रथम एवं द्वितीय को जनता ने काफ़ी सराहा, दोनों कृतियों को साउथ सेण्ट्रल जोन नागपुर में दो बार क्रमश: जूनियर एवं सीनियर श्रेणी में सम्मानित किया गया.

रामकिंकर मेरे प्रेरणाश्रोत

मूर्तिकार कलागुरू श्री रामकिंकर बैज का आदिवासियों के जीवन पर आधारित सारी कलाकृतियां व उनका व्यक्तित्व मेरे प्रेरणाश्रोत है.
'आदिम लय' शीर्षक के तहत की गयी मेरी कलाकृतियां उम्मीदतन बेसुरे हो रहे इस समाज को एक नया सुर-लय-ताल देने में सक्षम होंगी.

Monday, September 1, 2008

सप्ताह का कलाकार -'मनोज कुमार पंकज'


बिहार के मधेपुरा जिले के गंगापुर गांव में मेरा जन्म हुआ. भागलपुर जिले के अति पिछड़े इलाके, एकचारी दियारा में पला बढ़ा, "संथाल जन-जाति का जीवन" बचपन से ही मेरे अंदर एक जबरदस्त रहस्यबोध, आकर्षण और रोमांच पैदा करता रहा. मेरे पिताजी का बड़ा योगदान है, मेरी कला यात्रा को आगे बढाने में. जब जी ऊब जाता तो पिताजी मुझे चित्र बनाने व कविता लिखने के लिए प्रेरित करते. तीन वर्ष की छोटी आयु से ही मैंने अपने-आपको रंगमंच पर पाया. पहला अभिनय कब और कहां किया था, ठीक-ठीक याद भी नहीं है. पांचवी कक्षा से ही बाल नाट्य मंडली का अघोषित रुप से निर्देशक बन गया. जनपद की आंचलिक भाषा 'अंगिका' में नाटक और कविताएं लिखना प्रारंभ कर दिया. छोटे-बड़े दर्जन भर नाटकों का गांव-गांव तकरीबन बिहार के सौ से ज्यादा जगहों पर मंचन किया. 19 वर्ष की आयु में अंग जनपद का लेखक व निर्देशक घोषित हो गया. 'अंगिका' भाषा का प्रथम नाटककार होने का गौरव प्राप्त हुआ. 'बिहार-दलित साहित्यकार अकादमी ने 'डॉ. अंबेडकर फ़ेलोशिप' देकर सम्मानित किया. इन्टर की पढा़ई के तुरंत बाद शिल्प, संगीत, नृत्य महाविद्यालय कलाकेन्द्र, भागलपुर से फ़ाइन आर्ट की प्रारंभिक कला शिक्षा की शुरुआत की.
कला केन्द्र में बचपन से अवचेतन में बसा देवदूत (संथाल आदिवासी) कोरे कागज पर तीर धनुष लिए उपस्थित हो गया.

संथाल आदिवासी एक दाम्पत्य जीवन
यह मेरा पहला तैल चित्र जो 1993 में बनाया,जिसे प्रथम राज्यस्तरीय पुरस्कार मिला.

बी.एच. यू में प्रवेश
बी.एच. यू में आते ही संघर्ष का दौर शुरु हो गया. बी.एच. यू प्रशासन ने प्रवेश परीक्षा रद्द कर दी.इसके खिलाफ़ हम लोगों ने अपने प्रवेश के लिये आंदोलन छेड़ दिया. इलाहाबाद हाई कोर्ट से 6 महीने तक केस लड़ने के बाद जीत हमारी हुई.
इस संघर्ष ने मेरे विचारों व्यवहारों व जीवन मूल्यों में बड़ा परिवर्तन किया. जो लोग यह उपदेश देते फ़िर रहें थे कि राजनीति गन्दीं चीज है इससे कलाकारों को बचना चाहिए. वही लोग सबसे घिनौनी राजनीति कर रहे थें.

रचना और आंदोलन
बी.एफ़.ए की पढ़ाई करते हुए कई अनसुलझे सवाल थें जैसे ......................... कला आखिर किसके लिये हो...... इसकी सेवा कैसे की जाए ?
इसी क्रम में 'जसम' के वरिष्ठ रंगकर्मी 'उदय' एवं 'समकालीन जनमत' के सम्पादक 'रामजी राय' से मुलाकात हुई . मेरे सवालों का जवाब मिल चुका था, रास्ता साफ़ दिखाई दे रहा था. बस सिर्फ़ चलने की जरुरत थी.

जीवन, रचना और आंदोलन
छात्र आंदोलन से उभरे कई कलाकार साथियों ने मिलकर 'कला-कम्युन' नाम से संस्था बनाई अब जीवन रचना और आंदोलन एक दुसरे के पर्याय बन गएं. जो आज कई वर्षों से जनता के बीच सांस्कृतिक गतिविधियां कर रही है. जो आज भी मुझे ऊर्जा प्रदान कर रही है.
माध्यम और रचना को लेकर मेरे विचार
मैं रचना के आधार पर माध्यम का चुनाव करता हुं न कि माध्यम के आधार पर रचना का.

मेरे मुर्तिशिल्प
आदिम लय-1 >
उक्त रचना में मैंने श्रम की गति, लय, सौन्दर्य, वात्सल्य और बाल हट दिखाने के साथ-साथ आदिम संस्कृति की अमर परम्परा को अक्षुण रखने हेतु नयी पीढ़ी के दायित्व का इशारा भी है.
आदिम लय-2
मदीरा पान आदिम संस्कृति का बहुत ही महत्त्वपुर्ण अंग है. उक्त रचना में मैंने मदीरा पान को positive sence में लिया है रचना के किसी उक्त भाव, लय, गति व मस्ती को दिखाने के लिए फ़ार्म के साथ प्रयोग किया है.
आदिम लय-3
उक्त रचना में श्रम करने जा रही दो आदिवासी युवतियों के माध्यम से श्रम के सौन्दर्य को ज्यादा मुखर दिखाने का प्रयास किया है.चेहरे पर आशा का भाव हाथ में आगे की ओर लहराते हसिया व खुरपी के माध्यम से अपने अधिकारों के प्रति लड़ने की तरफ़ एक इशारा है.
आदिम लय-4
उक्त रचना में श्रम, शिकार, संगीत और प्रेम को प्रकृति के साथ तादात्म स्थापित कर आदिवसियों के जीवन की वास्तविकता को समाज के सामने रखने का प्रयास किया है.
आदिम लय-5
उक्त रचना में श्रम-शिकार और संगीत में तादात्म स्थापित कर आदिम संस्कृति की आत्मा को छूने का प्रयास किया है.

क्रमश:

Friday, March 7, 2008

हमारा सृजन संघर्ष जारी है

मनोज कुमार पंकाज
जेहन में हो अ़गर अतीत की गर्माहट
मालूम हो बहुरुपिया वर्तमान का सच
ठीक-ठीक पता हो
समय का साइन्स
अंतडियों में खौलती मैग्मा का सेन्टर
और कर ली गई हो
रोटी पर कील ठोंकने वालों की शिनाख्त
तो बदला जा सकता है-
हवा का रूख
रोकी जा सकती है सूरज की मनमानी
चांद की बेवफाई
उठ सकता है
कलम-कूंची से भी तूफान
फूट सकता है ज्वालामुखी
बदल सकती है औरत की परिभाषा
क्योंकि उसकी कोख में पल रहा है
तुम्हारे कंप्यूटर युग का भगत सिंह.
नये साल के स्वागत में मुक्ति की अदम्य आकांक्षा लिये 'उम्मीदें २००८' नई रचना और नये सृजन की पुरसुकून आह्ट ले कर आई .
कला और संस्कृति की राजधानी बनारस में 'उम्मीदें' कला महोत्सव का आयाम लेती जा रही है. यहाँ कला दीर्घा के दायरों से निकल कर कला अपना मुक्ताकाशी विस्तार तलाशती है. यहाँ रचना और रचनाकार अपने अस्तित्व का अर्थ तलाशते हैं और इसके लिए कला-प्रेमी-पारखी आम जन से सहज संवाद बनाते हैं.
बनारस में कला की हर विधा-साहित्य, संगीत, नाटक, चित्र व मूर्ति कला के प्रति जो बनारसी लगाव, समझदारी, और आत्मीय ग्राह्मता है, वह दुर्लभ है. कला के प्रति लगन और लगाव की इस संस्कृति को विकसित करने में काशी के कलाकारों की सदियों से चली आ रही अनवरत साधना की अहम भूमिका रही है. 'उम्मीदें' काशी की इस विरासत को आगे ले चलने का समवेत प्रयास है.
संचार माध्यम नयी पीढी़ के लिये हर पल बदलती रंगीन रोशनी और गहराते उन्माद के जहरीले धुएँ की ऐसी डिस्को दुनिया परोस रहे हैं जहाँ किसी भी चीज की हैसियत, उसका वजूद सिर्फ़ और सिर्फ़ उसका बाजार भाव तय करता है. किसी भी 'चीज' से मतलब इन्सान समेत हर उस चीज से है जो इन्सानी उपलब्धि और कल्पना के दायरे में है. कला और संस्कृति इससे अलग नहीं है. आज का कलाकार भी उपभोग के इस माया बाजार में बिकने के लिए मजूबर है. इस बाजार में कला और हुनर की कीमत रचना के सौन्दर्य और अन्तर्वस्तु से नहीं बल्कि कलाकार के नाम के टैग से होती है. कला और रचना से परे कलाकार खुद एक 'ब्रांड'- एक स्टेट्स सिंबल, एक कारपोरेट एन्टिटी बन जाता है. कला और कलाकार का संपूर्ण बाजारू पर्याय जिसके सामने लाखों कलाकार और उनकी रचना अपने अस्तित्व और अस्मिता से वंचित हो जाते हैं- ठीक उसी तरह जैसे आज की सत्ता के लिए बाजार के दायरे से बाहर कोई भी इन्सानी वजूद नहीं हैं- भले ही उनकी तादाद अरबों में क्यों न हो.
'उम्मीदें कला और कलाकार की इस मजबूरी को नये सृजन की चुनौती है. इसके लिए हर कला विधा से जुडे़ रचनाकार को अपने आप से लड़ना होगा. पराभव के अहसास और मोहग्रस्तता को बेरहमी से तोड़ना होगा. अपने अन्दर के जुझारू, बेपरवाह कलाकार को मुक्त करना होगा.
'उम्मीदें' तमाम कला विधाओ के सृजन और सृजनकारों को साझी जगह और जरूरत से जोड़ने की कोशिश है जिससे वे एक दूसरे को समृद्ध करते हुए आम जन की दुनिया से जुड़ सकें जहाँ उनके वजूद की जमीन और विस्तार का अनन्त आकाश दोनों ही हैं.
फ़ितरत हमेशा ही अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम लगाने की रही है और सच्चे रचनाकार सत्ता की चुनौतियों से हमेशा ही दो-दो हाथ करते हुए रचना को नये आयाम और नयी ऊँचाइयाँ देते आये हैं. इसके लिए वे कोई भी कीमत चुकाते रहे हैं. कोई भी कीमत चुका कर अभिव्यक्ति और सृजन के खतरे मोल लेने का हौसला ही गुयेर्निका की चीख, गुरूशरण के नाटक और गदर के गीत रचता है.
हमारे देश का सत्ता प्रतिष्ठान भी अभिव्यक्ति पर पाबन्दी और पहरे के उन्मअत्त और उदंड प्रयास करता रहा है. साल २००७ भी इसका अपवाद नहीं रहा. हुसैन के साथ जो हुआ उसे कौन नहीं जानता. बडौ़दा के युवा चित्रकार की पेन्टिंग प्रदर्शनी में तोड़-फोड़ और दुर्व्यवहार समूचे रचनाधर्मी समुदाय के लिए बेहद शर्मनाक घटना थी जिसका देश भर में कवि-कलाकारों-बुद्धिजीवियों ने विरोध किया. मगर अफसोस कि बनारस में दो बडे़ कला संस्थान होने के बावजूद इस लम्पट उदंडता के खिलाफ कोई संगठित आवाज नहीं उठ सकी.
निर्वासन की त्रासदी झेल रही, महिला मुक्ति की हौसलाकुन आवाज, बंगलादेश की मशहूर लेखिका तस्लीमा नसरीन को पनाह देने में हो रही सियासत और बीते दिनों उनके साथ हुए दुर्व्यवहार ने सत्ता प्रतिष्ठान के दलाल और लम्पट चरित्र को पूरी तरह बेनकाब कर दिया है. मगर एक बार फिर अफसोस कि इस बार इस सवाल से देश के ज्यादातर रचनाकार-बुद्धिजीवी कतराते नजर आ रहे हैं. चुनौतियों से कतराने का यह शुतुरमुर्गाना अन्दाज अभिव्यक्ति और सृजन की स्वतंत्रता पर सत्ता के हमले रचना का वाक-ओवर तो नहीं है?
कतराना न तो सृजन की परम्परा रही है और न ही सृजनकार की फितरत. सृजन के खतरे मोल लेने का हौसला तभी आता है जब सृजनकर्ता आम आदमी की मुक्ति की अदम्य आकांक्षा से जुड़ता है. मुक्ति की वह अदम्य आकांक्षा जो बनारस के नाविक को, पूर्वांचल के बुनकर को, महाराष्ट्र और आंध्र के किसान को, गुड़गांव के मजदूर को, बेरोजगार नौजवान को, बलात्कृता औरत को, सिंगूर और नन्दीग्राम को, भुखमरी, उपेक्षा, प्रताड़ना और दमन की दहलीज पर घुटने टेकने से रोकती है. मुक्ति की यह अदम्य आकांक्षा ही नये सृजन की आशा है.
उम्मीदें २००८ नये सृजन की इसी आशा की ओर हम सृजनकारों का हौसले के साथ बढ़ाया गया कदम है.