Monday, December 10, 2007

कला कम्यून; कल आज और कल

उदय यादव
सपने तो बचपन के हैं - देश के लिये समाज के लिये कुछ करने के। इन्हीं सपनों के उधेड़ - बुन में जवान हुआ। गांव, कस्बा, मुहल्ला से गुजरते हुए शहर पहुँचा (ढेर सारे दोस्त वहीं छूट गये)। डर लगा कि कितने अकेले हो गये। अलग-अलग जगहों से आई जमात मिली तब लगा कि कितने भाग्यशाली थे हम।
अभी अकादमिक पढ़ाई में मन रमा ही था कि चारों ओर हो रही उठा - पटक ने फिर बचपन के भूत को जगा दिया। वहीं इसे जड़ जमाने के लिए आधार भी मिला लेकिन समीकरण बदल गया। बचपन में हम अधिकारी थे सवाल पूछने के लिए लेकिन अब जवाब के लिए जिम्मेदार हो गये। निज के लिए पढ़ाई और देश समाज के लिए नाटक, स्टडी सर्किल और आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे। पता नहीं चला कि कब निज हाशिए पर चला गया। लगभग हम सभी पूर्णकालिक हो गये। घर - परिवार, अपनों (तथाकथित) द्वारा बस एक सवाल -’ नाटक करते हो और क्या करते हो? जीवन कैसे चलेगा?..’ इस पर हमलोग सामने वाले को नासमझ और तुच्छ मानकर ही जवाब देते। लब्बो - लवाब यह कि जीवन से ज्यादा देश और समाज को खतरा है उसे बचाने की कोशिश करो। इस पर वे चुप्पी साध लेते। लेकिन मौका मिलते ही फिर दाग देते सवाल। अब इनके सवालों का परवाह किये बिना स्कूल - कालेज, विश्वविद्यालय, दफ्तर में जाकर अपनी जमात तैयार करने लगे। इसमे कुछ हमराही, कुछ समर्थक और कुछ दयानिधान भी बन जाते। जो मौके - बेमौके आर्थिक मदद और नैतिक समर्थन करते रहते।
हम लोगों में कई तरह के लोग थे - सीधे-साधे, गुस्सैल, डरपोक, हिम्मती, अपने में गुम, खोये - खोये से, नशेड़ी, चालबाज़ आदि-आदि लेकिन बुद्धि के सब धनी थे। भाषण देना, गाना गाना, लिखना, पेंटिंग-स्केच, पोस्टर, अभिनय, राजनितिक, सामाजिक, सैद्धान्तिक बहस और समाज काल परिस्थिति को समझने के लिए खूब पढ़ाई हमारी फितरत थी। धीरे - धीरे आकादमिक पढ़ाई से नाता टूट ही गया।
समय के साथ - साथ ’ नाटक करते हो और क्या करते हो?’ वाला सवाल अपना सवाल बन गया। ग्रुप में एक बेचैनी घर कर गयी। बिना व्यवस्था बदले कुछ नहीं होने वाला। सवाल पहाड़ की तरह खड़ा हो गया। समाधन के लिये कुछ ने पार्टी की राह चुनी, कुछ ने निजि धंधे शुरू किये, कुछ ने महानगरों की ओर रूख किया और कुछ वहीं डटे रहे। यहां व्यवस्था फिर आड़े आयी और हम जहां के तहां हो गये। लेकिन जहां-जहां हम गये सवाल पीछा करता रहा। अलग - अलग मौकों पर अलग- अलग रुप में। भागने की कोशिश करते सामने आ खड़ा होता। सब कुछ भुलाकर सो जाते कम्बख्त सपने में भी आ धमकता। खूब रंग दिखाया, कई कमाल किया और करवाया भी। अब तक हम सबको पर जम गये थे। तर्कों की दुनियां हमारी मुठ्ठी में थी। हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। लेकिन बन्धु एक चीज़ बिगड़ गयी। दो फांक हो गयी। एक तरफ खड़ा हुआ व्यक्ति और दूसरी तरफ वैचारिक समूह। आइये वैचारिक समूह वाली राह पर चलते हैं।
तमाम उठा पटक और ऊबड़ - खाबड़ राहों से गुजरते हुए बुनियादी सवाल को केन्द्र में लाया गया। मत बना कि चलो नए सिरे से फिर शुरू करते हैं और शिद्दत से खोजते हैं कला में जीवन की राह।
"कला कला के लिए न हो जीवन के लिए हो" इस मूल के साथ खोज शुरू हुई।
1996. बनारस. किसान आन्दोलन के साथियों के सौजन्य से एक नाटक की टीम के साथ के गांवों का दौरा। लोक जीवन और लोक संस्कृति से रुबरू होते ही मानों जमीन मिल गई। उर्वरक जमीन। यह तय है कि अगर इससे कट गये तो सूख जायेंगे (गलत फहमी न हो कि कट कर सुख पायेंगे)। लहलहाती ऊर्जा से लबरेज बनारस लौटे। नौकरी पेशा, दुकानदार, मजदूर और छात्रों के बीच संपर्क शुरू हुआ। ’हम बदलेंगे तो जग बदलेगा’ की राह (जो चोरी छिपे तमाम प्रगतिशीलों के दिमाग में अपनी जगह बनाये हुए है) के बजाय "व्यवस्था बदलेगी तभी समाज और लोगों का जीवन बदलेगा" की राह पर चल पड़े। व्यवस्था को बदलने के लिए व्यवस्था चाहिए।
इसी सिस्टम (Mother organisation: Centre for Research and Application in Folk arts Film & Theatre - CRAFFT) को बनाने की एक कोशिश है "कला कम्यून"
पिछले दस सालों से कला कम्यून के लोग ( दर्जनों लोग आये और गये भी ) जीवन, रचना, विचार और आन्दोलन को सामूहिक तरीके से तय कर रहे हैं। नाटक - गायन टीम, फिल्म सोसाइटी, चित्रकला, मूर्तिकला, ग्राफिक डिजाइन, कविता/गद्य पोस्टर, सेमिनार, विचार गोष्ठी, पुस्तकालय, स्टडी सर्किल व कला आयोजनों के जरिए समाज से रुबरू होते रहते हैं। सब एक छत के नीचे रहते हैं। सामूहिक मेस में खाना खाते हैं। बुद्दिजीवियों, कलाकारों, प्रगतिशील खेमों, आम-जन और साथ ही साथ देश-विदेश में फैले उन तमाम दोस्तों से संपर्क - संबन्ध बनाकर नित नये प्रारुप को गढ़ने की कोशिश में रहते हैं। निजी जीवन के लिए कला से सम्बन्धित कमर्शियल फर्म ( Vikalp Communications) चलाते हैं।
फिलहाल आज इतना ही। आगे पिछ्ली यात्रा के अनुभव, आने वाले कल के लिए आज की समझ और तमाम रचनाकारों के रचना संसार के साथ आते रहेंगें। (क्रमश:.......)

चलिए....
कन्धे से कन्धा मिलाते हैं कवि शम्भुदत्त शैलेय से। जो रुद्रपुर के निवासी हैं। राजकीय महाविद्यालय, खटीमा में पढ़ाते हैं........

7 comments:

Anonymous said...

कला के इस सफर में हम भी आप के साथ हैं

VIMAL VERMA said...

अरे बहुत बहुत स्वागत तो कर ही दिया जाय,भाई कला कम्यून को हमारी शुभकामनाएं

कला कम्यून said...

हमारी भी शुभकामनाएं

इरफ़ान said...

namaste.
www.tooteehueebikhreehuee.blogspot.com

अभय तिवारी said...

शम्भूदत्त का सवाल बढ़िया है और पोस्टर बहुत बढिया..
और हमारे पुराने साथी और नेता उदय भाई की अदम्य ऊर्जा और अनथक प्रयासों के फल कला कम्यून को बहुत शुभकामनाएं..

Anonymous said...

कला कम्यून को इंटरनेट पर भी देख कर अच्छा लगा

अफ़लातून said...

उदय यादव और कला कम्यून को हार्दिक शुभकामना।