Saturday, December 15, 2007

महा कवि का महाप्रयाण -१

अजय कुमार


(हिन्दी की प्रगतिशील कविता की अंतिम कड़ी त्रिलोचन शास्त्री का 9 दिसंबर शाम उनके निवास पर निधन हो गया। वह 91 वर्ष के थे। हिन्दी कविता के इतिहास में शमशेर, नागार्जुन, केदार और त्रिलोचन जी का अलग महत्व रहा है। इन्होंने हिन्दी में प्रगतिशील धारा को स्थापित किया। श्री शास्त्री जी का निधन हिन्दी की प्रगतिशील और जनपदीय चेतना की कविता के लिए बड़ी क्षति है। उनके निधन से एक युग का अंत हो गया। वह जनसंस्कृति मंच के पुर्व अध्यक्ष भी थे। बनारस के तमाम कलाकारों, साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों और जनसंस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख व्यक्त किया है। साहित्यकार अजय कुमार जी, जो सेवा प्रेस जौनपुर के रहने वाले तथा जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है, त्रिलोचन जी के साथ बिताए कुछ छ्ड़ो को हमारे साथ याद कर रहे हैं)


आठवीं पार्टी कान्फरेन्स के लिए धनबाद ट्रेन पकड़ने के लिए हजारीबाग रोड से चली पैसेंजर ट्रेन के ठसाठस भरे डब्बे में कुछ देर खड़े खड़े द्रविण प्राणायाम करने के बाद जैसे ही कमर सीधी करने के लिए एक सीट का सहारा मिला और मैंने बैग से महाश्वेता देवी का "अमृत संचय" निकालकर बनारस में कर्नल नील के अत्याचारों के ब्योरे पर नज़र दौड़ानी शुरु की कि उदय ने भीड़ से सरक कर कन्धा थपथपाया और खबर दी - "त्रिलोचन जी गये"। उनकी पिछली बीमारी की खबर भी दिल्ली जाते हुए ट्रेन में मिली थी वाचस्पति जी से। स्मृतिलोप का पता "समयान्तर" में अजय सिंह के लेख को ट्रेन में ही पढ़ते हुए चला और अब उनके आखिरी सफर की खबर भी मिली सफर करते हुए।
तो इस तरह खतम हुआ संघर्षशील और सार्थक जीवन का एक लम्बा सफर। खबर के साथ शुरु हुआ मेरी यादों का सफर। बुकमार्क लगाकर किताब बैग में रख दी और मुड़ गया महाश्वेता देवी और नील के 1857 के बनारस से त्रिलोचन के बनारस की ओर। भाई (दम्मू जी) ने पहली बार उनसे मिलाया था "जनवार्ता" के कार्यालय में। वे कुर्ता खूंटी पर टांगकर खद्दर की बंडी और पायजामा पहने हुए मेज - कुर्सी पर डटे कुछ लिख रहे थे। तपाक से मिले। पिता के और समय (अखबार) के बारे में बात करते रहे। बातें क्या हुई कुछ याद नहीं। तब मै त्रिलोचन होने का मतलब ही नहीं जानता था। दूसरी मुलाकात भी डा. अवधेश प्रधान ने बनारस में ही कराई रथयात्रा चौमुहानी पर स्थित उनके घर पर। मेरा परिचय मिलते ही बड़ी आत्मीयता से पिता, भाई और अखबार के बारे में पूछा, "समय समय की बात समय पर मुझ तक नहीं पहुँच रही है आजकल" (भारत नीति गगन में निर्मल जीवन ज्योति जगावेगा / समय समय की बात समय पर "समय" आप बतलावेगा "समय साप्ताहिक" का आदर्श वाक्य हुआ करता था)। प्रधान जी और उनके बीच समाज, संस्कृति, इतिहास, भूगोल और भाषा पर लम्बी बातचीत होती रही। मैं दो महासमुद्रों के संगम पर बैठा सीपियां और कंकड़ चुनता रहा। मोती तो हमेशा ही निपुण गोताखोर को ही मिलते रहे हैं।

बनारस में ही एक मुलाकात और रही। लगता है अब "समय" उन्हे बराबर मिल रहा था। मिलते ही शिकायत की - " अपने भाई से कहना जैसे रामेश्वर बाबू जौनपुर और आसपास के गांव-जवार के कवियों की कविताएं छापते थे वैसे ही छापते रहें। क्रान्तिकारियों की कविताओं के अनुवाद दूसरों के लिए रहने दें।" इसी बनारस यात्रा में ठाकुर प्रसाद जी से मिला। त्रिलोचन जी की चर्चा पर बोले "जिस दिन चीनी क्रान्ति के विजय की खबर आई त्रिलोचन जी के इम्तहान चल रहे थे। हमलोग बड़ी सतर्कता के साथ उन्हे घेरे रहे कि कहीं वे पढ़ाई छोड़कर कविता लिखने में न जुट जायें। दूसरे दिन इम्तहान जाने के पहले वे लंगोट लेकर ऊपर गए कसरत करने। आधे धन्टे बाद लौटे तो कविता तैयार थी - "ताल ठोक कर खड़ा हुआ है लालचीन देखो"। और भी तमाम बहुत कुछ बनारसी मस्ती के दिनों के त्रिलोचन पर।

फिर जब वे जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष हुए तो मुलाकात के अवसत बढ़े। बैठकों, गोष्ठियों और सम्मेलनों में बार-बार मिलना हुआ। गोष्ठियों में उनकी विद्वता और बातचीत में उनके विश्वकोक्शीय ज्ञान से बराबर साक्षात्कार हुआ। खुद कुछ शुरू करें या किसी का जवाब दे रहे हों, कहाँ कहाँ से होते हुए कहाँ के कहाँ पहुँच जाते थे। कभी लगता अब बहक गये पर एक लम्बी विश्व्यात्रा पूरी करके फिर उस तमाम विषय को अपने मूल विषय से जोड़कर चमत्कृत कर देते। बाल की खाल नहीं उधेड़ते थे, बात को ही परत दर परत खोलते चले जाते थे। कभी बूंद को फैलाकर समुद्र कर देते और कभी समुन्दर को समेट कर बंधी मुट्ठी के अंगूठे पर बनने वाले गड्ढे में समो देते थे। एक बैठक में किसी मुद्दे पर बहस कुछ ज्यादा ही लम्बी खिंच गई। महासचिव ने अध्यक्षीय भाषण के लिए त्रिलोचन जी को बुलाया तो मेरे बगल में बैठे एक साथी ने मेरे कान में कहा, "लंच टला डिनर तक" लेकिन त्रिलोचन जी ने जिस तरह चार पाँच जुमलों में बहस का सार और समाधान पेश किया वह देखने सुननेवालों से ही ताल्लुक रखता था।

पुरलुत्फ आदमी थे। चुटकुले खूब सुनाते। बात को दिलचस्प बना देना भी खूब जानते थे। जमकर ठहाके लगाते और सुनने वालो को हंसा हंसा कर बेदम कर देते। एक बार बोले "कोई भाषा सीखनी हो तो उसकी गालियाँ पहले सीखिए।" क्यों पूछने पर बतलाया - "महामना मदन मोहन मालवीय ने महाराष्ट्र में एक सभा में अपने भाषण में चोट शब्द का इस्त्तेमाल किया तो ठहाका लगने लगा। महामना ने आहत होकर कहा आपके इस व्यवहार से मुझे फिर चोट कगी है। ठहाके चौगुने हो गए। बगल में बैठे मराठीभाषी सज्जन ने उन्हें टोका - आघात कहिए चोट यहाँ गाली है।" (क्रमश:....)

2 comments:

VIMAL VERMA said...

संस्मरण अच्छा जा रहा है, बहुत कुछ त्रिलोचनजी के व्यक्तित्व के बारे में खुलासा करता है, अगली कड़ी का इन्तज़ार रहेगा

pranay krishna said...

Kavi Trilochan ke sansmaran ki shrinkhla hi chala den to achcha hoga. Ajaiji se shuruat behad achchi hai,kyonki Trilochan apne jivan kaal mein hi mithak ho gaye the.unhe apni yadoon mein sahejna ek kal-parikrama hai,poori sabhyata ko naye sire se dekhna aur aankna hai.Kavita mein we poore nahi sama sakte. unka jeevan,bhasha ke zariye duniya ko kholna aur dainandin vyavhar mein jeevan ke saar ko spashta karte rehna ek aisi jeevant virasat hai jise dohrana hi maulikta hai.aap apne blog par unke sansmaranon ko vistar denge, aisi apeksha hai.
pranay