Thursday, February 5, 2009

उम्मीदें 2009

साल 2008 प्रतिक्रिया और प्रतिशोध से, लहूलुहान
मुम्बई के महासमुद्र में दूब गया
प्रतिक्रिया और प्रतिशोध
जिसे आदमी के जिन्दा होने और सोचने पर एतराज है
जिसे बच्चों के मुस्कुराने और फ़ूलों के खिलने पर एतराज है
जिसे कब्रों और श्मसानों में जिन्दगी की आहट से खतरा है
जिसे आज गर्भ में आकार ले रहे कल की कुल्बुलाहट से खतरा है
इसलिए वह मिटा देना चाहता है समय और सोच को,
सपनों और संभावनाओं को डालरों और दलालों से,
मुस्कुराहटों को मिसाइलों से और प्रतिरोध को प्रतिशोध से
वह बना देना चाहता है आदमी को
धौस-धमक से कूट-पीट कर, नर्म और नाकारा-पिलपिली लुग्दी
जिससे वह बना सके व्यवस्था के मनचाहे पुर्जे,
मनचाहे मुखौटों वाले दलाल गुड्डे
जो व्यवस्था की बिसात पर शातिर चालों का मोहरा बन सकें।
लेकिन गजब हो गया
वक्त ने रुकने और आदमी ने मरने से इन्कार कर दिया
और साल 2009 में प्रतिरोध का सूरज
प्रतिक्रिया और प्रतिशोध से लड़ता गाजा-पट्टी की सडकों पर निकल आया
जिंदा होने की जिद की कीमत
जन्मे-अजन्मे बच्चों के चीथड़े हो गयें।

इसलिए बेहद जरूरी है कि आदमी प्रतिरोध का परचम बुलन्द करे,
और जो कुछ भी हो हाथ में,
कलम, कूंची, कूदाल, फूल, पत्थर या जो भी,
उसे हथियार बना, प्रतिरोध के सृजन में शामिल हों
अहमद फ्राज की कविता, मंजीत बाबा के चित्रों
और सुशील त्रिपाठी के सृजन धर्मिता के वारिस हों।

उम्मीदें 2009 प्रतिक्रिया और प्रतिशोध के खिलाफ
प्रतिरोध के सृजन के नाम है

आप जरूर शामिल हों।

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